कुशवाहा कान्त: Difference between revisions
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==33 की उम्र और 35 उपन्यास== | ==33 की उम्र और 35 उपन्यास== | ||
चर्चित उपन्यासकार कुशवाहा | चर्चित उपन्यासकार कुशवाहा कान्त 50 से लेकर 80 के दशक तक [[हिन्दी साहित्य]] के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक रहे। [[हिन्दी]] साहित्यकारों के बीच वह भले ही उपेक्षित और अछूत बने रहे, मगर उस दौर की युवा पीढ़ी के लिए कुशवाहा कान्त एक आदर्श लेखक का नाम हुआ करता था। दरअसल वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। तभी तो उन्होंने 'लालरेखा' के अलावा 'पपिहरा', 'परदेशी', 'पराया', 'पारस', 'जंजीर', 'मदभरे नयना', 'पराजिता', 'विद्रोही सुभाष', 'लाल किले की ओर' जैसे कालजयी उपन्यास लिखे। इसके अलावा पराया, जंजीर, उड़ते-उड़ते, नागिन, जवानी के दिन, हमारी गलियां, उसके साजन, गोल निशान, काला भूत, रक्त मंदिर, खून का प्यासा, दानव देश, कैसे कहूं, नीलम, अकेला, पागल, बसेरा, आहुति, कुमकुम, मंजिल, निर्मोही, जलन, चूड़ियां, भंवरा, इशारा, लवंग और अपना-पराया जैसे 35 चर्चित उपन्यासों की रचना की। | ||
उनके उपन्यासों में जहां [[श्रृंगार रस]] का अनूठा समन्वय है, वहीं क्रांतिकारी लेखनी और जासूसी कृतियों का कोई जवाब ही नहीं है। वो कई विधाओं में पारंगत थे। उनकी कृतियों को आज भी जो पढ़ लेता है, वो उसमें खो जाता है। उनका अंतिम [[उपन्यास]] है ‘जंजीर’। इनके निधन के बाद ‘जंजीर’ को इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा ने पूरा किया था। 'नीलम' उपन्यास का दूसरा भाग 'सरोज' नाम से कुशवाहा | उनके उपन्यासों में जहां [[श्रृंगार रस]] का अनूठा समन्वय है, वहीं क्रांतिकारी लेखनी और जासूसी कृतियों का कोई जवाब ही नहीं है। वो कई विधाओं में पारंगत थे। उनकी कृतियों को आज भी जो पढ़ लेता है, वो उसमें खो जाता है। उनका अंतिम [[उपन्यास]] है ‘जंजीर’। इनके निधन के बाद ‘जंजीर’ को इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा ने पूरा किया था। 'नीलम' उपन्यास का दूसरा भाग 'सरोज' नाम से कुशवाहा कान्त की पत्नी गीता रानी कुशवाहा ने लिखा।<ref name="pp">{{cite web |url= https://hindi.newsclick.in/SPECIAL-REPORT-Popular-novelist-from-Banaras-Kushwaha-Kant-demand-for-solving-70-years-old-murder-mystery|title=बनारस के लोकप्रिय उपन्यासकार कुशवाह कान्त की 70 बरस पुरानी 'मर्डर मिस्ट्री' सुलझाने की उठी माँग|accessmonthday=29 फ़रवरी|accessyear=2024 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= hindi.newsclick.in|language=हिंदी}}</ref> | ||
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आजादी के बाद [[बनारस]] हिंदी साहित्य प्रकाशन का बड़ा केंद्र बनने लगा था। इसी दौर में कुशवाहा | आजादी के बाद [[बनारस]] हिंदी साहित्य प्रकाशन का बड़ा केंद्र बनने लगा था। इसी दौर में कुशवाहा कान्त के उपन्यासों की धूम मची थी। इन्होंने तीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया जो 'चिनगारी', 'नागिन' और 'बिजली' नाम से थीं। शुरू में कुशवाहा कान्त की कृतियां 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। बाद में उन्होंने अपना नाम कुशवाहा कान्त रख लिया। युवा अवस्था में वो रजत पट के किसी अभिनेता के माफिक खूबसूरत थे। इसलिए भी उनके चाहने वालों फेहरिश्त बहुत लंबी थी। कुशवाहा कान्त फरेबी नहीं, सीधे-सच्चे और नेक दिलन इनसान थे। | ||
लिखना-पढ़ना उनका जुनून था। लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनखोर बन गए। तीक्ष्ण बुद्धि के कुशवाहा | लिखना-पढ़ना उनका जुनून था। लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनखोर बन गए। तीक्ष्ण बुद्धि के कुशवाहा कान्त लोकप्रियता के उच्च शिखर पर चल रहे थे कि अचनाक सब कुछ बिखर गया। हिंदी जगत का ये धूमकेतु महज 33 साल की उम्र में देश के लाखों पाठकों को उदास कर गया। | ||
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कुशवाहा कान्त की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं- | कुशवाहा कान्त की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं- | ||
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कुशवाहा | कुशवाहा कान्त की मौत के बाद भी करीब तीन दशक तक इनके उपन्यासों की धूम रही। उनकी लोकप्रियता का हर कोई दीवाना था। इनके उपन्यासों का जादू है ही कुछ ऐसा। ऐसा जादू जो खामोशी से पाठकों के दिल में उतरता है और पहले पन्ने से लेकर आखिर तक पढ़ने का भाव जगा देता है। युवा अवस्था में ही वो [[वाराणसी]] के लोकप्रिय सख्शियत में शुमार हो गए थे। [[बनारस]] के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार के अनुसार- "बनारस के साहित्यकार [[जयशंकर प्रसाद]], [[प्रेमचंद]] और [[रामचन्द्र शुक्ल]] के बाद साहित्यिक मशाल को इस चिर युवा [[साहित्यकार]] ने जलाया। उनकी सरल और सशक्त लेखनी ने हिन्दी उपन्यास जगत में हलचल मचा दी थी। [[हिन्दी]], [[उर्दू]] और [[अंग्रेजी]] पर उनका एक समान दखल था। सिर्फ करीब आठ सालों में कुशवाहा कान्त ने [[कहानी]], [[नाटक]] और व्यंग्य शैली में कई उपन्यासों, दर्जनों नाटकों और कविताओं की पुस्तकें लिखीं, जो इनके विराट व्यक्तित्व का सूचक है। सामाजिक और तिलस्मी [[उपन्यास]] लिखकर साहित्य जगत में अपनी नई पहचान बनाई थी।"<ref name="pp"/> | ||
==हर कोई था दीवाना== | ==हर कोई था दीवाना== | ||
बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण कुशवाहा | बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण कुशवाहा कान्त का मन किसी कारोबार में नहीं रमा। उनके तीन बेटे दो पुत्रियां थीं। इसके बावजूद इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा उन्हें घर-गृहस्ती से दूर रखते थे। परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी जयंत ही उठाया करते थे। वो खुद भी अपने दौर के नामी-गिरामी उपन्यासकार थे। कुशवाहा कान्त के उपन्यासों का गहराई से अध्ययन करने वाले बनारस के पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "एक तरफ कान्त के उपन्यास धूम मचा रहे थे तो दूसरी तरफ जयंत के। जयंत ने क्रांतिदूत, बारूद, कफन, जनाजा, इंतकाम, कालापानी, चिनगारी, देशभक्त, दरिंदे, फांसी, ललकार, जालिम, सरहद, आग, बगावत, शहीद, ज्वालामुखी, खून और सोना, आहुति, गद्दार, कैदी, साजिश, कुर्बानी, हथकड़ियां, प्रतिशोध, फफोले, शायद तुम वही हो, खामोशी, प्यासे रिश्ते, इंतजार, अमानत, ऊंचे लोग और नासूर जैसे 42 चर्चित उपन्यास लिखे और साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाई।" | ||
"जिस समय बनारसियों के दिल और दिमाग पर [[देवकी नंदन खत्री]] के तिलस्मी उपन्यासों का खुमार छाया हुआ था, उसी दौर में [[त्रिलोचन शास्त्री]] और [[पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र']] सरीखे चर्चित साहित्यकार भी हुआ करते थे। पिछड़ी जाति की कोइरी उप-जाति से ताल्लुकात रखने की वजह से [[बनारस]] ज्यादातर सवर्ण लेखकों के मन में उन्हें लेकर जातीय विद्वेष था। बनारस के नागरी प्रचारणी की साहित्यक गोष्ठियों में सवर्ण साहित्यकारों ने कई मर्तबा | "जिस समय बनारसियों के दिल और दिमाग पर [[देवकी नंदन खत्री]] के तिलस्मी उपन्यासों का खुमार छाया हुआ था, उसी दौर में [[त्रिलोचन शास्त्री]] और [[पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र']] सरीखे चर्चित साहित्यकार भी हुआ करते थे। पिछड़ी जाति की कोइरी उप-जाति से ताल्लुकात रखने की वजह से [[बनारस]] ज्यादातर सवर्ण लेखकों के मन में उन्हें लेकर जातीय विद्वेष था। बनारस के नागरी प्रचारणी की साहित्यक गोष्ठियों में सवर्ण साहित्यकारों ने कई मर्तबा कान्त को कोसा और उनकी खिल्ली भी उड़ाई। इन्हें किसी चर्चित साहित्यकार का सानिध्य भले ही नहीं मिला, लेकिन वो हमेशा अपने दिल की अनुभूतियों से लिखते-पढ़ते और प्रसिद्धि हासिल करते रहे। समूचे [[उत्तर भारत]] में वह अपनी कलम के जादू से तहलका मचाते रहे। वह अपने जमाने के बेस्ट सेलेबल रचनाकार थे और 'लालरेखा', 'विद्रोही सुभाष', 'लालकिला' जैसी कालजयी रचनाएं लिखकर अमर हो गए।"<ref name="pp"/> | ||
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[[उत्तर भारत]] में [[साहित्य]] के अमर शिल्पी और [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध लेखकों में से एक कुशवाहा | [[उत्तर भारत]] में [[साहित्य]] के अमर शिल्पी और [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध लेखकों में से एक कुशवाहा कान्त के मौत की मिस्ट्री इतने साल बाद भी नहीं सुलझ पाई है। अब तक इस बात का पता नहीं चल पाया कि उनका कत्ल क्यों किया गया और हत्यारे कौन थे? दशकों गुजर जाने के बावजूद इनके कातिलों का राजफाश क्यों नहीं हो सका? अपराध पर लगाम कसने और अपराधियों को पकड़ने वाली गुप्तचर एजेंसियां क्यों घनचक्कर बनाकर रह गईं?<ref name="pp"/> आजाद [[भारत]] के [[इतिहास]] में मशहूर [[उपन्यासकार]] कुशवाहा कान्त की ‘मर्डर मिस्ट्री’ पहली घटना है, जिसमें बनारस पुलिस आज तक पर्याप्त सुबूत नहीं जुटा पाई। इनके कत्ल की गुत्थी उलझी हुई है। दशकों से पहेली बना एक राज़ आज भी रहस्य की घाटी में दफ़्न है। | ||
कुशवाहा | कुशवाहा कान्त के भतीजे और देश के चर्चित उपन्यासकार रहे सजल कुशवाहा कहते हैं, "कुशवाहा कान्त की हत्या अपने दौर की सबसे बड़ी सनसनीखेज घटना थी। बनारस को याद है कि [[29 फ़रवरी]], [[1952]] को रुमानियत के इस सर्जनकर्ता के जीवन में रुमानियत काली निशा बनकर आई। [[होली]] का त्योहार करीब था। किसी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। कुशवाहा कान्त जगतगंज के करीब रामकटोरा स्थित रामकुंड के पास पहुंचे, तभी उनके बदन में ताबड़तोड़ कई चाकू घोंपे गए। रामकुंड खून से लाल हो गया। किसी ने उन्हें पहचाना और खून से लथपथ कुशवाहा कान्त को रिक्शे पर लादकर कबीरचौर अस्पताल भेजा। सरकारी अस्पताल के डाक्टर लाख प्रयास के बावजूद उनकी सांसों की डोर नहीं थाम पाए। उनके ऊपर छुरे से अनगिनत वार किये गये थे, जिसकी असह्य पीड़ा के बीच ठीक होली के दिन उनके प्राण पखेरू हो गए"। | ||
"साहित्य के महाध्रुवतारा की मौत की वेदना से हमारा [[परिवार]] बिलख रहा था और बनारस शहर होली के हुड़दंग के बीच फाग खेल रहा था। हमने होश संभाला तो कुशवाहा | "साहित्य के महाध्रुवतारा की मौत की वेदना से हमारा [[परिवार]] बिलख रहा था और बनारस शहर होली के हुड़दंग के बीच फाग खेल रहा था। हमने होश संभाला तो कुशवाहा कान्त के मौत की मिस्ट्री को सुलझाने के लिए थाना पुलिस के अनगिनत चक्कर लगाए। मगर अफसोस, पुलिस अफसरों ने कालजयी रचनाकार की मौत से पर्दा उठाने की जरूरत ही नहीं समझी। खुफिया एजेंसियों ने जांच-पड़ताल की रस्मअदायगी की, लेकिन कुशवाहा कान्त की मर्डर मिस्ट्री की गांठ नहीं खुल पाई। दशकों पुराना वो सस्पेंस आज भी सस्पेंस हैं"। | ||
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Latest revision as of 06:24, 29 February 2024
कुशवाहा कान्त
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पूरा नाम | कुशवाहा कान्त |
जन्म | 9 दिसम्बर, 1918 |
जन्म भूमि | मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 29 फ़रवरी, 1952 |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | लेखन |
मुख्य रचनाएँ | 'लाल रेखा', 'पारस', 'विद्रोही सुभाष', 'आहुति', 'बसेरा', 'कुमकुम', 'मंजिल', 'नीलम पागल', 'जलन' आदि। |
प्रसिद्धि | उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार, साहित्यकार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | कुशवाहा कान्त भारत के प्रसिद्ध उपन्यासकार थे। इनकी कृतियाँ 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
कुशवाहा कान्त (अंग्रेज़ी: Kushwaha Kant, जन्म- 9 दिसम्बर, 1918; मृत्यु- 29 फ़रवरी, 1952) भारत के जाने-माने उपन्यासकार थे। उन्होंने 'महाकवि मोची' नाम से कई हास्य नाटकों तथा कविताओं का भी सृजन किया।[1] कुशवाहा कान्त ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बग़ावती तेवर और लेखनी की रुमानियत को आज भी याद किया जाता है। उनकी कृतियाँ 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के 'महुवरिया' नामक मोहल्ले में जन्में कुशवाहा कान्त ने नौवीं कक्षा में ही ‘खून का प्यासा’ नामक जासूसी उपन्यास लिखा था। बनारस के इस प्रसिद्ध उपन्यासकार की हत्या चाकुओं के वार से की गई थी। इस 'मर्डर मिस्ट्री' को आज तक सुलझाया नहीं जा सका है।
33 की उम्र और 35 उपन्यास
चर्चित उपन्यासकार कुशवाहा कान्त 50 से लेकर 80 के दशक तक हिन्दी साहित्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक रहे। हिन्दी साहित्यकारों के बीच वह भले ही उपेक्षित और अछूत बने रहे, मगर उस दौर की युवा पीढ़ी के लिए कुशवाहा कान्त एक आदर्श लेखक का नाम हुआ करता था। दरअसल वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। तभी तो उन्होंने 'लालरेखा' के अलावा 'पपिहरा', 'परदेशी', 'पराया', 'पारस', 'जंजीर', 'मदभरे नयना', 'पराजिता', 'विद्रोही सुभाष', 'लाल किले की ओर' जैसे कालजयी उपन्यास लिखे। इसके अलावा पराया, जंजीर, उड़ते-उड़ते, नागिन, जवानी के दिन, हमारी गलियां, उसके साजन, गोल निशान, काला भूत, रक्त मंदिर, खून का प्यासा, दानव देश, कैसे कहूं, नीलम, अकेला, पागल, बसेरा, आहुति, कुमकुम, मंजिल, निर्मोही, जलन, चूड़ियां, भंवरा, इशारा, लवंग और अपना-पराया जैसे 35 चर्चित उपन्यासों की रचना की।
उनके उपन्यासों में जहां श्रृंगार रस का अनूठा समन्वय है, वहीं क्रांतिकारी लेखनी और जासूसी कृतियों का कोई जवाब ही नहीं है। वो कई विधाओं में पारंगत थे। उनकी कृतियों को आज भी जो पढ़ लेता है, वो उसमें खो जाता है। उनका अंतिम उपन्यास है ‘जंजीर’। इनके निधन के बाद ‘जंजीर’ को इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा ने पूरा किया था। 'नीलम' उपन्यास का दूसरा भाग 'सरोज' नाम से कुशवाहा कान्त की पत्नी गीता रानी कुशवाहा ने लिखा।[2]
लोकप्रियता
आजादी के बाद बनारस हिंदी साहित्य प्रकाशन का बड़ा केंद्र बनने लगा था। इसी दौर में कुशवाहा कान्त के उपन्यासों की धूम मची थी। इन्होंने तीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया जो 'चिनगारी', 'नागिन' और 'बिजली' नाम से थीं। शुरू में कुशवाहा कान्त की कृतियां 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। बाद में उन्होंने अपना नाम कुशवाहा कान्त रख लिया। युवा अवस्था में वो रजत पट के किसी अभिनेता के माफिक खूबसूरत थे। इसलिए भी उनके चाहने वालों फेहरिश्त बहुत लंबी थी। कुशवाहा कान्त फरेबी नहीं, सीधे-सच्चे और नेक दिलन इनसान थे।
लिखना-पढ़ना उनका जुनून था। लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनखोर बन गए। तीक्ष्ण बुद्धि के कुशवाहा कान्त लोकप्रियता के उच्च शिखर पर चल रहे थे कि अचनाक सब कुछ बिखर गया। हिंदी जगत का ये धूमकेतु महज 33 साल की उम्र में देश के लाखों पाठकों को उदास कर गया।
प्रमुख कृतियाँ
कुशवाहा कान्त की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
- लाल रेखा
- पपीहरा
- पारस
- परदेसी (दो भाग)
- विद्रोही सुभाष
- नागिन मद भरे नैयना
- आहुति
- अकेला
- बसेरा
- कुमकुम
- मंजिल
- नीलम पागल
- जलन
- लवंग
- निर्मोही
- अपना-पराया
उपन्यासों की धूम
कुशवाहा कान्त की मौत के बाद भी करीब तीन दशक तक इनके उपन्यासों की धूम रही। उनकी लोकप्रियता का हर कोई दीवाना था। इनके उपन्यासों का जादू है ही कुछ ऐसा। ऐसा जादू जो खामोशी से पाठकों के दिल में उतरता है और पहले पन्ने से लेकर आखिर तक पढ़ने का भाव जगा देता है। युवा अवस्था में ही वो वाराणसी के लोकप्रिय सख्शियत में शुमार हो गए थे। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार के अनुसार- "बनारस के साहित्यकार जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद और रामचन्द्र शुक्ल के बाद साहित्यिक मशाल को इस चिर युवा साहित्यकार ने जलाया। उनकी सरल और सशक्त लेखनी ने हिन्दी उपन्यास जगत में हलचल मचा दी थी। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी पर उनका एक समान दखल था। सिर्फ करीब आठ सालों में कुशवाहा कान्त ने कहानी, नाटक और व्यंग्य शैली में कई उपन्यासों, दर्जनों नाटकों और कविताओं की पुस्तकें लिखीं, जो इनके विराट व्यक्तित्व का सूचक है। सामाजिक और तिलस्मी उपन्यास लिखकर साहित्य जगत में अपनी नई पहचान बनाई थी।"[2]
हर कोई था दीवाना
बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण कुशवाहा कान्त का मन किसी कारोबार में नहीं रमा। उनके तीन बेटे दो पुत्रियां थीं। इसके बावजूद इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा उन्हें घर-गृहस्ती से दूर रखते थे। परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी जयंत ही उठाया करते थे। वो खुद भी अपने दौर के नामी-गिरामी उपन्यासकार थे। कुशवाहा कान्त के उपन्यासों का गहराई से अध्ययन करने वाले बनारस के पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "एक तरफ कान्त के उपन्यास धूम मचा रहे थे तो दूसरी तरफ जयंत के। जयंत ने क्रांतिदूत, बारूद, कफन, जनाजा, इंतकाम, कालापानी, चिनगारी, देशभक्त, दरिंदे, फांसी, ललकार, जालिम, सरहद, आग, बगावत, शहीद, ज्वालामुखी, खून और सोना, आहुति, गद्दार, कैदी, साजिश, कुर्बानी, हथकड़ियां, प्रतिशोध, फफोले, शायद तुम वही हो, खामोशी, प्यासे रिश्ते, इंतजार, अमानत, ऊंचे लोग और नासूर जैसे 42 चर्चित उपन्यास लिखे और साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाई।"
"जिस समय बनारसियों के दिल और दिमाग पर देवकी नंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यासों का खुमार छाया हुआ था, उसी दौर में त्रिलोचन शास्त्री और पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' सरीखे चर्चित साहित्यकार भी हुआ करते थे। पिछड़ी जाति की कोइरी उप-जाति से ताल्लुकात रखने की वजह से बनारस ज्यादातर सवर्ण लेखकों के मन में उन्हें लेकर जातीय विद्वेष था। बनारस के नागरी प्रचारणी की साहित्यक गोष्ठियों में सवर्ण साहित्यकारों ने कई मर्तबा कान्त को कोसा और उनकी खिल्ली भी उड़ाई। इन्हें किसी चर्चित साहित्यकार का सानिध्य भले ही नहीं मिला, लेकिन वो हमेशा अपने दिल की अनुभूतियों से लिखते-पढ़ते और प्रसिद्धि हासिल करते रहे। समूचे उत्तर भारत में वह अपनी कलम के जादू से तहलका मचाते रहे। वह अपने जमाने के बेस्ट सेलेबल रचनाकार थे और 'लालरेखा', 'विद्रोही सुभाष', 'लालकिला' जैसी कालजयी रचनाएं लिखकर अमर हो गए।"[2]
मृत्यु
29 फ़रवरी, 1952 को कबीरचौरा के पास गुण्डों ने एक आक्रमण किया, जिसमें कुशवाहा कान्त का निधन हो गया।
उत्तर भारत में साहित्य के अमर शिल्पी और हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों में से एक कुशवाहा कान्त के मौत की मिस्ट्री इतने साल बाद भी नहीं सुलझ पाई है। अब तक इस बात का पता नहीं चल पाया कि उनका कत्ल क्यों किया गया और हत्यारे कौन थे? दशकों गुजर जाने के बावजूद इनके कातिलों का राजफाश क्यों नहीं हो सका? अपराध पर लगाम कसने और अपराधियों को पकड़ने वाली गुप्तचर एजेंसियां क्यों घनचक्कर बनाकर रह गईं?[2] आजाद भारत के इतिहास में मशहूर उपन्यासकार कुशवाहा कान्त की ‘मर्डर मिस्ट्री’ पहली घटना है, जिसमें बनारस पुलिस आज तक पर्याप्त सुबूत नहीं जुटा पाई। इनके कत्ल की गुत्थी उलझी हुई है। दशकों से पहेली बना एक राज़ आज भी रहस्य की घाटी में दफ़्न है।
कुशवाहा कान्त के भतीजे और देश के चर्चित उपन्यासकार रहे सजल कुशवाहा कहते हैं, "कुशवाहा कान्त की हत्या अपने दौर की सबसे बड़ी सनसनीखेज घटना थी। बनारस को याद है कि 29 फ़रवरी, 1952 को रुमानियत के इस सर्जनकर्ता के जीवन में रुमानियत काली निशा बनकर आई। होली का त्योहार करीब था। किसी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। कुशवाहा कान्त जगतगंज के करीब रामकटोरा स्थित रामकुंड के पास पहुंचे, तभी उनके बदन में ताबड़तोड़ कई चाकू घोंपे गए। रामकुंड खून से लाल हो गया। किसी ने उन्हें पहचाना और खून से लथपथ कुशवाहा कान्त को रिक्शे पर लादकर कबीरचौर अस्पताल भेजा। सरकारी अस्पताल के डाक्टर लाख प्रयास के बावजूद उनकी सांसों की डोर नहीं थाम पाए। उनके ऊपर छुरे से अनगिनत वार किये गये थे, जिसकी असह्य पीड़ा के बीच ठीक होली के दिन उनके प्राण पखेरू हो गए"।
"साहित्य के महाध्रुवतारा की मौत की वेदना से हमारा परिवार बिलख रहा था और बनारस शहर होली के हुड़दंग के बीच फाग खेल रहा था। हमने होश संभाला तो कुशवाहा कान्त के मौत की मिस्ट्री को सुलझाने के लिए थाना पुलिस के अनगिनत चक्कर लगाए। मगर अफसोस, पुलिस अफसरों ने कालजयी रचनाकार की मौत से पर्दा उठाने की जरूरत ही नहीं समझी। खुफिया एजेंसियों ने जांच-पड़ताल की रस्मअदायगी की, लेकिन कुशवाहा कान्त की मर्डर मिस्ट्री की गांठ नहीं खुल पाई। दशकों पुराना वो सस्पेंस आज भी सस्पेंस हैं"।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काशी के साहित्यकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 जनवरी, 2014।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 बनारस के लोकप्रिय उपन्यासकार कुशवाह कान्त की 70 बरस पुरानी 'मर्डर मिस्ट्री' सुलझाने की उठी माँग (हिंदी) hindi.newsclick.in। अभिगमन तिथि: 29 फ़रवरी, 2024।
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