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Revision as of 12:41, 6 January 2017

गोराबादल रे बात हिन्दी भाषा में लिखा गया एक महाकाव्य है, जिसमें प्रसिद्ध चित्तौड़ की पद्मिनी जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है। हस्तलिखित प्रतियों में जटमल की इस कृति के 'गोरा बादल की कथा', 'गोरे बादल की कथा', 'गोरा बादलरी कथा', 'गोरा बादल की बात', विभिन्न नाम मिलते हैं। एक सौ पचास पद्यों की इस कृति की रचना जटमल ने 1623 या 1628 ई. में की थी। यह कवि जटमल की रचना है।

रूपरेखा

'गोरा बादल की कथा' का कथानक इतिहास प्रसिद्ध चित्तौड़ की पद्मिनी से सम्बन्ध रखता है। रत्नसेन और सिंहल की पद्मिनी के परिणय, राघवचेतन और अलाउद्दीन की भेंट और पद्मिनी के सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षित होने तथा सुल्तान अलाउद्दीन द्वारा रत्नसेन को बन्दी बनाकर कष्ट देने की कथा की मोटी रूपरेखा भिन्न न होते हुए भी जटमल ने अनेक नवीन तथ्यों की कल्पना की है। अलाउद्दीन के आक्रमण के सामना करने में गोरा बदल की वीरता का चित्रण कृति का प्रधान उद्देश्य है। कथा का लोकप्रचलित रूप ही जटमल ने ग्रहण किया है। इतिहास से वे परिचित नहीं जान पड़ते, क्योंकि रत्नसेन को उन्होंने चौहानवंशी कहा है। अलाउद्दीन का सिंहल पर आक्रमण करना और फिर चित्तौड़ पर आक्रमण करना भी इसी प्रकार की ऐतिहासिक त्रुटि है।

भाषा शैली

कृति में वीर और श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है। कृति की भाषा मिश्रित ब्रजभाषा कई जा सकती है, जो राजस्थानी से प्रभावित है। तत्सम शब्दों के स्थान पर जटमल तद्भव शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। कृति में वीर काव्यों की द्वित्ववर्णप्रधान कृत्रिम शैली के दर्शन कम ही होते हैं। अलंकारों के प्रयोग में भी जटमल ने आग्रह नहीं किया है दोहा और छप्पय मटमल के प्रिय छन्द कहे जा सकते हैं। छन्दों की विविधता 'गोरा बादल की बाद' में नहीं मिलती। कृति के अच्छे संस्करण की आवश्यकता है। तरुण भारत ग्रंथावली कार्यालय, प्रयाग से एक संस्करण निकला था जो कठिनाई से मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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संबंधित लेख





चंद्रगुप्त विद्यालंकार (जन्म- 1906 ई. मुजफ्फरगरढ़) प्रसिद्ध साहित्यकार थे। चंद्रगुप्त जी का विशेष रूप से कहानियाँ और एकांकी नाटकों का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है।

परिचय

चंद्रगुप्त विद्यालंकार का जन्म- 1906 ई. मुजफ्फरगरढ़ जिले में हुआ। पिछले तीस वर्षों से आप हिन्दी में पत्रकारिता से लेकर कहानी, नाटक और निबन्ध आदि लिखते रहे हैं। विशेष रूप से आपकी कहानियाँ और उसके बाद एकांकी नाटकों का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। आपकी कहानियों में हमें शिल्प की प्रौढ़ता अधिक मिलती है। शिल्प के प्रति अधिक जागरूक रहने के कारण कभी-कभी कहानियों का मानवीय पक्ष छूट जाता है। पाश्चात्य शिल्प की सम्पूर्ण मार्मिकता को चन्द्रगुप्त जी बड़ी सफलता से अपनी कहानियों में प्रस्तुत करते हैं। ऐसा लगता है जैसे सौमरसेट मॉम की कहानियों का शिल्प और चन्द्रगुपत विद्यालकार की कहानियों का शिल्प समान स्तर पर व्यवहृत होता है। मॉम की कहानियों की तरह इनकी कहानियों में भी हमें उनकी शिल्पगत विशेषता अधिक प्रभावित करती है, कहानी कम। शिल्प की प्रौढ़ता के अतिरिक्त जिस रोमानी वातावरण का चित्रण चन्द्रगुप्तजी करते हैं, उसमें पूर्व निश्चित योजना की झलक मिल जाती है। मानव नियति के मुक्त और स्वच्छन्द अस्तित्व की अपेक्षा उनकी यह शैलीगत मान्यता उनके पात्रों को पालतू सा बना देती है। चन्द्रगुके एकांकी नाटक भी एकांकी शिल्प का सफल परिचय देते हैं। इनके नाटकों में मानवीय संवेदनाओं की अतिनाटकीयता होती है और यथार्थ का खिंचा हुआ रूप देखने को मिलता है, लेकिन एकांकी के शिल्प का निर्वाह कुछ अंशों में बड़ा ही सफल होता है।

सम्पूर्ण नाटकों में 'न्याय की रात' और 'देव और मानव' महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसा लगता है कि चन्द्रगुप्तजी का कहानी और एकांकी कलाकार सम्पूर्ण नाटक की मर्मपूर्ण, विस्तृत योजना को दायित्वपूर्ण ढंग से निभा नहीं पाया है क्योंकि जैसा कि नाटकों के नामों से ही स्पष्ट है, चन्द्रगुप्तजी के इन नाटकों में कोमलता और पूर्वनिश्चित उद्देश्यों की पुष्ठि की बात अधिक सिद्ध होती है। दोनों नाटकों में पात्रों के चरित्र का निर्माण या उनके व्यक्तित्व का विकास, नाटक में प्रस्तुत घटनाएँ कम करती हैं, लेखक की पूर्वनिश्चित दृष्टि और उसकी काव्यात्मक भावुकता अधिक उभर कर आती है। यही कारण है कि जहाँ एकांकी नाटकों और कहानियों में चन्द्रगुप्तजी अधिक अफल होते हैं, वहाँ सम्पूर्ण नाटकों में नाटक का मर्म जैसे इनसे छूट जाता है।

भाषा शैली

कहानी और नाटकों दोनों में ही वातावरण के अनुकूल भाषा का अपने प्रयोग किया है। कहीं-कहीं नाटकों में गुप्तजी की निरी साहित्यिक भाषा खटकती है, लेकिन ऐसे स्थान बहुत कम हैं।

कहानी संग्रह

आपकी प्रकाशित रचनाओं में से कहानी-संग्रह 'वापसी' (1954) और 'चन्द्रकला' (1929) काफी महत्त्वपूर्ण है; एकांकी नाटकों में 'कासमोपोलिटन क्लब' नामक संग्रह जो 1945 में प्रकाशित हुआ है, अधिक रुचिसम्पन्न है। सम्पूर्ण नाटकों में 'अशोक' (1934) 'देव और मानव' (1956) 'न्याय की रात' (1958) हैं। इस समय आप मासिक 'आजकल' (हिन्दी) के सम्पादक हैं।


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