सती -प्रेमचंद: Difference between revisions

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कल्लू निर्जीव की भाँति खाट पर गिर पड़ा और बोला, 'तो रूप मेरे बस का नहीं है। देव ने कुरूप बना दिया, तो सुन्दर कैसे बन जाऊँ ? '
कल्लू निर्जीव की भाँति खाट पर गिर पड़ा और बोला, 'तो रूप मेरे बस का नहीं है। देव ने कुरूप बना दिया, तो सुन्दर कैसे बन जाऊँ ? '


कल्लू ने अगर मुलिया को खौलते हुए तेल में डाल दिया होता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती। कल्लू उस दिन से कुछ खोया-खोया-सा रहने लगा। जीवन में न वह उत्साह रहा, न वह आनंद। हँसना-बोलना भूल-सा गया। मुलिया ने उसके साथ जितना विश्वासघात किया था, उससे कहीं ज़्यादा उसने समझ लिया। और यह भ्रम उसके ह्रदय में केवड़े के समान चिपट गया। वह घर अब उसके लिए केवल लेटने-बैठने का स्थान था और मुलिया केवल भोजन बना देनेवाली मशीन। आनन्द के लिए वह कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता, या चरस के दम लगाता। मुलिया उसकी दशा देख-देख अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती थी। वह उस बात
कल्लू ने अगर मुलिया को खौलते हुए तेल में डाल दिया होता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती। कल्लू उस दिन से कुछ खोया-खोया-सा रहने लगा। जीवन में न वह उत्साह रहा, न वह आनंद। हँसना-बोलना भूल-सा गया। मुलिया ने उसके साथ जितना विश्वासघात किया था, उससे कहीं ज़्यादा उसने समझ लिया। और यह भ्रम उसके हृदय में केवड़े के समान चिपट गया। वह घर अब उसके लिए केवल लेटने-बैठने का स्थान था और मुलिया केवल भोजन बना देनेवाली मशीन। आनन्द के लिए वह कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता, या चरस के दम लगाता। मुलिया उसकी दशा देख-देख अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती थी। वह उस बात


को उसके दि  से निकाल देना चाहती थी, इसलिए उसकी सेवा और मन लगा कर करती। उसे प्रसन्न करने के लिए बार-बार प्रयत्न करती; पर वह जितना ही उसको खींचने की चेष्टा करती थी, उतना ही वह उससे विचलता
को उसके दि  से निकाल देना चाहती थी, इसलिए उसकी सेवा और मन लगा कर करती। उसे प्रसन्न करने के लिए बार-बार प्रयत्न करती; पर वह जितना ही उसको खींचने की चेष्टा करती थी, उतना ही वह उससे विचलता


था, जैसे कोई कॅटिये में फॅसी हुई मछली हो। कुशल यह था कि राजा जिस अंग्रेज़ के यहाँ खानसामा था, उसका तबादला हो गया और राजा उसके साथ चला गया था, नहीं तो दोनों भाइयों में से किसी-न-किसी का ज़रूर खून हो जाता। इस तरह साल-भर बीत गया।
था, जैसे कोई कॅटिये में फॅसी हुई मछली हो। कुशल यह था कि राजा जिस अंग्रेज़ के यहाँ खानसामा था, उसका तबादला हो गया और राजा उसके साथ चला गया था, नहीं तो दोनों भाइयों में से किसी-न-किसी का ज़रूर ख़ून हो जाता। इस तरह साल-भर बीत गया।


एक दिन कल्लू रात को घर लौटा, तो उसे ज्वर था। दूसरे दिन उसकी देह में दाने निकल आये। मुलिया ने समझा, माता हैं। मान-मनौती करने लगी; मगर चार-पाँच दिन में ही दाने बढ़कर आवले पड़ गये और मालूम हुआ कि यह माता नहीं हैं; उपदंश है। कल्लू के कलुषित भोग-विलास का यह फल था।
एक दिन कल्लू रात को घर लौटा, तो उसे ज्वर था। दूसरे दिन उसकी देह में दाने निकल आये। मुलिया ने समझा, माता हैं। मान-मनौती करने लगी; मगर चार-पाँच दिन में ही दाने बढ़कर आवले पड़ गये और मालूम हुआ कि यह माता नहीं हैं; उपदंश है। कल्लू के कलुषित भोग-विलास का यह फल था।
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कल्लू ने सजल और दीनता-भरी आँखों से देखा और हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। यही अन्तिम बिदाई थी।
कल्लू ने सजल और दीनता-भरी आँखों से देखा और हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। यही अन्तिम बिदाई थी।


मुलिया उसके सीने पर सिर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आहत ह्रदय से रक्त की बूँदों के समान शब्द निकलने लगे, 'तुमसे इतना भी न देखा गया, भगवन् ! उस पर न्यायी और दयालु कहलाते हो !
मुलिया उसके सीने पर सिर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आहत हृदय से रक्त की बूँदों के समान शब्द निकलने लगे, 'तुमसे इतना भी न देखा गया, भगवन् ! उस पर न्यायी और दयालु कहलाते हो !


इसीलिए तुमने जन्म दिया ! यही खेल खेलने के लिए ! हाय नाथ ! तुम तो इतने निष्ठुर न थे ! मुझे अकेली छोड़कर चले जा रहे हो ! हाय ! अब कौन मूला कहकर पुकारेगा ! अब किसके लिए कुएं से पानी खींचूँगी ! किसे बैठाकर खिलाऊँगी, पंखा डुलाऊँगी ! सब सुख हर लिया, तो मुझे भी क्यों नहीं उठा लेते ! '
इसीलिए तुमने जन्म दिया ! यही खेल खेलने के लिए ! हाय नाथ ! तुम तो इतने निष्ठुर न थे ! मुझे अकेली छोड़कर चले जा रहे हो ! हाय ! अब कौन मूला कहकर पुकारेगा ! अब किसके लिए कुएं से पानी खींचूँगी ! किसे बैठाकर खिलाऊँगी, पंखा डुलाऊँगी ! सब सुख हर लिया, तो मुझे भी क्यों नहीं उठा लेते ! '

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मुलिया को देखते हुए उसका पति कल्लू कुछ भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि मुलिया संतुष्ट और प्रसन्न है और कल्लू चिन्तित और सशंकित ? मुलिया को कौड़ी मिली है, उसे दूसरा कौन पूछेगा ? कल्लू को रत्न मिला है, उसके सैकड़ों ग्राहक हो सकते हैं। ख़ासकर उसे अपने चचेरे भाई राजा से बहुत खटका रहता है। राजा रूपवान है, रसिक है, बातचीत में कुशल है, स्त्रियों को रिझाना जानता है। इससे कल्लू मुलिया को बाहर नहीं निकलने देता। उस पर किसी की निगाह भी पड़ जाय, यह उसे असह्य है। वह अब रात-दिन मेहनत करता है, जिससे मुलिया को किसी बात का कष्ट न हो। उसे न जाने किस पूर्व-जन्म के संस्कार से ऐसी स्त्री मिल गयी है। उस पर प्राणों को न्योछावर कर देना चाहता है। मुलिया का कभी सिर भी दुखता है, तो उसकी जान निकल जाती है। मुलिया का भी यह हाल है कि जब तक वह घर नहीं आता, मछली की भाँति तड़पती रहती है। गाँव में कितने ही युवक हैं, जो मुलिया से छेड़छाड़ करते रहते हैं; पर उस युवती की दृष्टि में कुरूप कलुआ संसार-भर के आदमियों से अच्छा है। एक दिन राजा ने कहा, 'भाभी, भैया तुम्हारे जोग न थे। ' मुलिया बोली, 'भाग में तो वह लिखे थे; तुम कैसे मिलते ? '

राजा ने मन में समझा, 'बस, अब मार लिया है। बोला, 'विधि ने यही तो भूल की। '

मुलिया मुस्कराकर बोली, 'अपनी भूल तो वही सुधरेगा। राजा निहाल हो गया। '

तीज के दिन कल्लू मुलिया के लिए लट्ठे की साड़ी लाया। चाहता तो था कोई अच्छी साड़ी ले; पर रुपये न थे और बजाज ने उधार न माना।

राजा भी उसी दिन अपने भाग्य की परीक्षा करना चाहता था। एक सुन्दर चुंदरी लाकर मुलिया को भेंट की।

मुलिया ने कहा, 'मेरे लिए तो साड़ी आ गयी है। '

राजा बोला, 'मैंने देखी है। तभी तो मैं इसे लाया। तुम्हारे लायक़ नहीं है। भैया को किफायत भी सूझती है, तो ऐसी बातों में। '

मुलिया कटाक्ष करके बोली, 'तुम समझा क्यों नहीं देते ? '

राजा पर एक कुल्हड़ का नशा चढ़ गया। बोला, 'बूढ़ा तोता नहीं पढ़ता है। '

मुलिया —‘मुझे तो लट्ठे की साड़ी ही पसन्द है। '

राजा —‘ज़रा यह चुंदरी पहनकर देखो, कैसी खिलती है। '

मुलिया —‘ज़ो लट्ठा पहनाकर खुश होता है, वह चुंदरी पहन लेने से खुश न होगा। उन्हें चुंदरी पसन्द होती, तो चुंदरी ही लाते। '

राजा —‘उन्हें दिखाने का काम नहीं है ? '

मुलिया विस्मय से बोली, 'मैं क्या उनसे बिना पूछे ले लूँगी ? '

राजा—‘इसमें पूछने की कौन-सी बात है। जब वह काम पर चला जाय,पहन लेना। मैं भी देख लूँगा।‘

मुलिया ठट्ठा मारकर हँसती हुई बोली, 'यह न होगा, देवरजी। कहीं देख लें, तो मेरी सामत ही आ जाय। इसे तुम लिये जाओ। '

राजा ने आग्रह करके कहा, 'इसे न लोगी भाभी, तो मैं ज़हर खाके सो रहूँगा। '

मुलिया ने साड़ी उठाकर आले पर रख दी और बोली, 'अच्छा लो, अब तो खुश हुए। '

राजा ने उँगली पकड़ी 'अभी तो भैया नहीं हैं, जरा पहन लो। '

मुलिया ने अन्दर जाकर चुंदरी पहन ली और फूल की तरह महकती-दमकती बाहर आयी।

राजा ने पहुँचा पकड़ने को हाथ फैलाया बोला, 'ऐसा जी चाहता है कि तुम्हें लेकर भाग जाऊँ। '

मुलिया उसी विनोद-भाव से बोली, 'ज़ानते हो, तुम्हारे भैया का क्या हाल होगा ? '


यह कहते हुए उसने किवाड़ बन्द कर लिये। राजा को ऐसा मालूम हुआ कि थाली परोसकर उसके सामने से उठा ली गयी। मुलिया का मन बार-बार करता था कि चुंदरी कल्लू को दिखा दे; पर नतीजा सोचकर रह जाती थी। उसने चुंदरी रख क्यों ली ? उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था, लेकिन राजा को कितना दु:ख होता। क्या हुआ उसकी चुंदरी छन-भर पहन लेने से, उसका मन तो रह गया। लेकिन उसके प्रशांत मानस-सागर में यह एक कीट आकर उसे मथ रहा था। उसने क्यों चुंदरी रख ली ? क्या यह कल्लू के साथ विश्वासघात नहीं है ? उसका चित्त इस विचार से विकल हो गया। उसने मन को समझाया, विश्वासघात क्यों हुआ; इसमें विश्वासघात की क्या बात है। कौन वह राजा से कुछ बोली, ? जरा-सा हँस देने से अगर किसी का दिल खुश हो जाता

है, तो इसमें क्या बुराई है ?

कल्लू ने पूछा, 'आज रज्जू क्या करने आया था ? '

मुलिया की देह थर-थर काँपने लगी। बहाना कर गयी, 'तमाखू माँगने आये थे।'

कल्लू ने भॅवें सिकोड़कर कहा, 'उसे अन्दर मत आने दिया करो। अच्छा आदमी नहीं है।'

मुलिया—‘ मैंने कह दिया तमाखू नहीं है, तो चले गये।'

कल्लू ने अबकी तेजस्विता के साथ कहा, 'क्यों झूठ बोलती है ? वह तमाखू माँगने नहीं आया था।'

मुलिया –‘तो और यहाँ क्या करने आते ?

कल्लू –‘चाहे जिस काम से आया हो, तमाखू माँगने नहीं आया। वह जानता था, मेरे घर में तमाखू नहीं है। मैं तमाखू के लिए उसके घर गया था।'

मुलिया की देह में काटो तो लहू नहीं। चेहरे का रंग उड़ गया। सिर झुकाकर बोली, 'मैं किसी के मन का हाल क्या जानूँ ? '

आज तीज का रतजगा था। मुलिया पूजा का सामान कर रही थी; पर इस तरह जैसे मन में जरा भी उत्साह, जरा भी श्रृद्धा नहीं है। उसे ऐसा मालूम हो रहा है, उसके मुख में कालिमा पुत गयी है और अब वह कल्लू की आँखों से गिर गयी है। उसे अपना जीवन निराधार-सा जान पड़ता था। सोचने लगी भगवान् ने मुझे यह रूप क्यों दिया ? यह रूप न होता तो राजा क्यों मेरे पीछे पड़ता और क्यों आज मेरी यह गत होती ? मैं काली-कुरूप रहकर इससे कहीं सुखी रहती। तब तो मन इतना चंचल न होता। जिन्हें रूप की कमाई खानी हो, वह रूप पर फूलें, यहाँ तो इसने मटियामेट कर दिया।

न जाने कब उसे झपकी आ गयी, तो देखती है, कल्लू मर गया है और राजा घर में घुसकर उसे पकड़ना चाहता है। उसी दम एक वृद्धा स्त्री न जाने किधर से आकर उसे अपनी गोद में ले लेती है और कहती है तूने

कल्लू को क्यों मार डाला ? मुलिया रोकर कहती है माता, मैंने उन्हें नहीं मारा। वृद्धा कहती है हाँ, तूने छुरी-कटार से नहीं मारा, उस दिन तेरा तप छीन हो गया और इसी से वह मर गया।

मुलिया ने चौकन्नी आँखें खोल दीं। सामने आँगन में कल्लू सोया हुआ था। वह दौड़ी हुई उसके पास गयी और उसकी छाती पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी।

कल्लू ने घबड़ाकर पूछा, 'क़ौन है ? मुलिया ! क्यों रोती हो ? क्या डर लग रहा है। मैं तो जाग ही रहा हूँ।'

मुलिया ने सिसकते हुए कहा, 'मुझसे आज एक अपराध हुआ है। उसे क्षमा कर दो।'

कल्लू उठ बैठा, 'क्या बात है ? कहो तो, रोती क्यों हो ? '

मुलिया –‘राजा तमाखू माँगने नहीं आया था। मैंने तुमसे झूठ कहा था।'

कल्लू हँसकर बोला, 'वह तो मैं पहले ही समझ गया था।'

मुलिया –‘वह मेरे लिए चुंदरी लाया था।'

'तुमने लौटा दी ?'

मुलिया काँपती हुई बोली, 'मैंने ले ली। कहते थे, मैं ज़हर-माहुर खा लूँगा।'

कल्लू निर्जीव की भाँति खाट पर गिर पड़ा और बोला, 'तो रूप मेरे बस का नहीं है। देव ने कुरूप बना दिया, तो सुन्दर कैसे बन जाऊँ ? '

कल्लू ने अगर मुलिया को खौलते हुए तेल में डाल दिया होता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती। कल्लू उस दिन से कुछ खोया-खोया-सा रहने लगा। जीवन में न वह उत्साह रहा, न वह आनंद। हँसना-बोलना भूल-सा गया। मुलिया ने उसके साथ जितना विश्वासघात किया था, उससे कहीं ज़्यादा उसने समझ लिया। और यह भ्रम उसके हृदय में केवड़े के समान चिपट गया। वह घर अब उसके लिए केवल लेटने-बैठने का स्थान था और मुलिया केवल भोजन बना देनेवाली मशीन। आनन्द के लिए वह कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता, या चरस के दम लगाता। मुलिया उसकी दशा देख-देख अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती थी। वह उस बात

को उसके दि से निकाल देना चाहती थी, इसलिए उसकी सेवा और मन लगा कर करती। उसे प्रसन्न करने के लिए बार-बार प्रयत्न करती; पर वह जितना ही उसको खींचने की चेष्टा करती थी, उतना ही वह उससे विचलता

था, जैसे कोई कॅटिये में फॅसी हुई मछली हो। कुशल यह था कि राजा जिस अंग्रेज़ के यहाँ खानसामा था, उसका तबादला हो गया और राजा उसके साथ चला गया था, नहीं तो दोनों भाइयों में से किसी-न-किसी का ज़रूर ख़ून हो जाता। इस तरह साल-भर बीत गया।

एक दिन कल्लू रात को घर लौटा, तो उसे ज्वर था। दूसरे दिन उसकी देह में दाने निकल आये। मुलिया ने समझा, माता हैं। मान-मनौती करने लगी; मगर चार-पाँच दिन में ही दाने बढ़कर आवले पड़ गये और मालूम हुआ कि यह माता नहीं हैं; उपदंश है। कल्लू के कलुषित भोग-विलास का यह फल था।

रोग इतनी भयंकरता से बढ़ने लगा कि आवलों में मवाद पड़ गया और उनमें से ऐसी दुर्गन्ध उड़ने लगी कि पास बैठते नाक फटती थी। देहात में जिस प्रकार का उपचार हो सकता था, वह मुलिया करती थी; पर कोई लाभ न होता था और कल्लू की दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। उपचार की कसर वह अबला अपनी स्नेहमय सेवा से पूरी करती थी। उस पर गृहस्थी चलाने के लिए अब मेहनत-मजूरी भी करनी पड़ती थी। कल्लू तो अपने किये का फल भोग रहा था। मुलिया अपने कर्तव्य का पालन करने में मरी जा रही थी। अगर कुछ सन्तोष था, तो यह कल्लू का भ्रम उसकी इस तपस्या से भंग होता जाता था। उसे अब विश्वास होने लगा था कि मुलिया अब भी उसी की है। वह अगर किसी तरह अच्छा हो जाता, तो फिर उसे दिल में छिपाकर रखता और उसकी पूजा करता।

प्रात:काल था। मुलिया ने कल्लू का हाथ-मुँह धुलाकर दवा पिलायी और खड़ी पंखा डुला रही थी कि कल्लू ने आँसू-भरी आँखों से देखकर कहा, 'मुलिया, मैंने उस जन्म में कोई भारी तप किया था कि तू मुझे मिल

गयी। तुम्हारी जगह मुझे दुनिया का राज मिले तो भी न लूँ।'

मुलिया ने दोनों हाथों से उसका मुँह बन्द कर दिया और बोली, 'इस तरह की बातें करोगे, तो मैं रोने लगूँगी। मेरे धन्य भाग कि तुम-जैसा स्वामी मिला।' यह कहते हुए उसने दोनों हाथ पति के गले में डाल दिये और लिपट गयी। फिर बोली, 'भगवान् ने मुझे मेरे पापों का दंड दिया है।'

कल्लू ने उत्सुकता से पूछा, 'सच कह दो मूला, राजा और तुममें क्या मामला था ?

मुलिया ने विस्मित होकर कहा, 'मेरे और उसके बीच कोई और मामला हुआ हो, तो भगवान् मेरी दुर्गति करें। उसने मुझे चुंदरी दी थी। वह मैंने ले ली थी ! फिर मैंने उसे आग में जला दिया। तब से मैं उससे नहीं बोली।'

कल्लू ने ठंडी साँस खींचकर कहा, 'मैंने कुछ और ही समझ रखा था। न-जाने मेरी मति कहाँ हर गयी थी। तुम्हें पाप लगाकर मैं आप पाप में फॅस गया और उसका फल भोग रहा हूँ।'

उसने रो-रोकर अपने दुष्कृत्यों का परदा खोलना शुरू किया और मुलिया आँसू की लड़ियाँ बहाकर सुनने लगी। अगर पति की चिन्ता न होती, तो उसने विष खा लिया होता।


कई महीने के बाद राजा छुट्टी लेकर घर आया और कल्लू की घातक बीमारी का हाल सुना, तो दिल में खुश हुआ; तीमारदारी के बहाने से कल्लू के घर आने-जाने लगा। कल्लू उसे देखकर मुँह फेर लेता, लेकिन वह दिन में दो-चार बार पहुँच ही जाता।

एक दिन मुलिया खाना पका रही थी कि राजा ने रसोई के द्वार पर आकर कहा, 'भाभी, क्यों अब भी मुझ पर दया न करोगी ? कितनी बेरहम हो तुम ! कै दिन से तुम्हें खोज रहा हूँ, पर तुम मुझसे भागती फिरती हो।

भैया अब अच्छे न होंगे। इन्हें गर्मी हो गयी है। इनके साथ क्यों अपनी ज़िन्दगी ख़राब कर रही हो ? तुम्हारी फूल-सी देह सूख गयी है। मेरे साथ चलो, कुछ ज़िन्दगी की बहार उड़ायें। यह जवानी बहुत दिन न रहेगी। यह देखो, तुम्हारे लिए एक करनफूल लाया हूँ, जरा पहनकर मुझे दिखा दो।'

उसने करनफूल मुलिया की ओर बढ़ा दिया। मुलिया ने उसकी ओर देखा भी नहीं। चूल्हे की ओर ताकती हुई बोली, 'लाला, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझे मत छेड़ो। यह सारी विपत्ति तुम्हारी लायी हुई है। तुम्हीं मेरे शत्रु

हो। फिर भी तुम्हें लाज नहीं आती। कहते हो, भैया अब किस काम के हैं ?मुझे तो अब वह पहले से कहीं ज़्यादा अच्छे लगते हैं। जब मैं न होती, तो वह दूसरी सगाई कर लाते, अपने हाथों ठोक खाते। आज मैं ही उनका आधार हूँ। वह मेरे सहारे जीते हैं। अगर मैं इस संकट में उनके साथ दगा करूँ, तो मुझसे बढ़कर अधम कौन होगा। जबकि मैं जानती हूँ कि इस संकट का कारण भी मैं ही हूँ।'

राजा ने हँसकर कहा, 'यह तो वही हुआ, जैसे किसी की दाल गिर गयी, तो उसने कहा, मुझे तो सूखी ही अच्छी लगती है।'

मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर सजोत नेत्रों से ताकते हुए कहा, 'तुम उनके पैरों की धूल के बराबर नहीं हो लाला, क्या कहते हो तुम ? उजले कपड़े और चिकने मुखड़े से कोई आदमी सुन्दर नहीं होता। मेरी आँखों में

तो उनके बराबर कोई दिखायी नहीं देता। '

कल्लू ने पुकारा, 'मूला, थोड़ा पानी दे।' मुलिया पानी लेकर दौड़ी।

चलते-चलते करनफूल को ऐसा ठुकराया कि आँगन में जा गिरा। राजा ने जल्दी से करनफूल उठा लिया और क्रोध में भरा हुआ चल दिया।

रोग दिन-पर-दिन बढ़ता गया। ठिकाने से दवा-दारू होती, तो शायद अच्छा हो जाता; मगर अकेली मुलिया क्या-क्या करती ? दरिद्रता में बीमारी कोढ़ का खाज है। आखिर एक दिन परवाना आ पहुँचा। मुलिया घर का काम-धन्धा करके आयी, तो देखा कल्लू की साँस चल रही है। घबड़ाकर बोली, 'क़ैसा जी है तुम्हारा ? '

कल्लू ने सजल और दीनता-भरी आँखों से देखा और हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। यही अन्तिम बिदाई थी।

मुलिया उसके सीने पर सिर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा में उसके आहत हृदय से रक्त की बूँदों के समान शब्द निकलने लगे, 'तुमसे इतना भी न देखा गया, भगवन् ! उस पर न्यायी और दयालु कहलाते हो !

इसीलिए तुमने जन्म दिया ! यही खेल खेलने के लिए ! हाय नाथ ! तुम तो इतने निष्ठुर न थे ! मुझे अकेली छोड़कर चले जा रहे हो ! हाय ! अब कौन मूला कहकर पुकारेगा ! अब किसके लिए कुएं से पानी खींचूँगी ! किसे बैठाकर खिलाऊँगी, पंखा डुलाऊँगी ! सब सुख हर लिया, तो मुझे भी क्यों नहीं उठा लेते ! '

सारा गाँव जमा हो गया। सभी समझा रहे थे। मुलिया को धैर्य न होता था। यह सब मेरे कारण हुआ; यह बात उसे नहीं भूलती। हाय ! हाय ! उसे भगवान् ने सामर्थ्य दिया होता, तो आज उसका सिरताज यों उठ जाता ?

शव की दाह-क्रिया की तैयारियाँ होने लगीं। कल्लू को मरे छ: महीने हो गये। मुलिया अपना कमाती है, खाती है और अपने घर में पड़ी रहती है। दिन-भर काम-धंधो से छुट्टी नहीं मिलती। हाँ, रात को एकान्त में रो लिया करती है।

उधर राजा की स्त्री मर गयी, मगर दो-चार दिन के बाद वह फिर छैला बना घूमने लगा। और भी छूटा सांड़ हो गया। पहले स्त्री से झगड़ा हो जाने का कुछ डर था। अब वह भी न रहा। अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीधे

मुलिया के घर पहुँचा। और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला, 'भाभी, अब तो मेरी अभिलाषा पूरी करोगी या अभी और कुछ बाकी है ? अब तो भैया भी नहीं रहे। इधर मेरी घरवाली भी सिधारी ! मैंने तो उसका गम भुला दिया। तुम कब तक भैया के नाम को रोती रहोगी ? '

मुलिया ने घृणा से उसकी ओर देखकर कहा, 'भैया नहीं रहे, तो क्या हुआ; भैया की याद तो है, उनका प्रेम तो है, उनकी सूरत तो दिल में है, उनकी बातें तो कानों में हैं। तुम्हारे लिए और दुनिया के लिए वह नहीं हैं, मेरे लिए वह अब भी वैसे ही जीते-जागते हैं। मैं अब भी उन्हें वैसे ही बैठे देखती हूँ। पहले तो देह का अन्तर था। अब तो वह मुझसे और भी नगीच हो गये हैं। और ज्यों-ज्यों दिन बीतेंगे और भी नगीच होते जायँगे। भरे-पूरे घर में दाने की कौन क़दर करता है। जब घर ख़ाली हो जाता है, तब मालूम होता है कि दाना क्या है। पैसेवाले पैसे की क़दर क्या जानें। पैसे की क़दर तब होती है, जब हाथ ख़ाली हो जाता है। तब आदमी एक-एक कौड़ी दाँत से पकड़ता है। तुम्हें भगवान् ने दिल ही नहीं दिया, तुम क्या जानो, सोहबत क्या है। घरवाली को मरे अभी छ: महीने भी नहीं हुए और तुम सांड़ बन बैठे। तुम मर गये होते, तो इसी तरह वह भी अब तक किसी के पास चली गयी होती ? मैं जानती हूँ कि मैं मर जाती, तो मेरा सिरताज 'जन्म' भर मेरे नाम को रोया करता। ऐसे ही पुरुषों की स्त्रियाँ उन पर प्राण देती हैं। तुम-जैसे सोहदों के भाग में पत्तल चाटना लिखा है; चाटो; मगर खबरदार, आज से मेरे घर में पाँव न रखना, नहीं तो जान से हाथ धोओगे ! बस, निकल जाओ।'

उसके मुख पर ऐसा तेज, स्वर में इतनी कटुता थी कि राजा को जबान खोलने का भी साहस न हुआ। चुपके से निकल भागा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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