इस्तीफा -प्रेमचंद: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "चीजें " to "चीज़ें ") |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) m (Text replacement - "मेंने" to "मैंने") |
||
(14 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{पुनरीक्षण}} | {{पुनरीक्षण}} | ||
दफ़्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मज़दूरों को आँखें दिखाओ, तो वह त्योरियॉँ बदल कर खड़ा हो जायकाह। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारों, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगहा से देख कर चला जाएेगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लत्तियॉँ झड़ने लगता हे; मगर बेचारे दफ़्तर के बाबू को आप चाहे आँखे दिखायें, डॉँट बतायें, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसक माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विकारों पर जो अधिपत्य होता हे, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हें। खंडहर के भी एक दिन भग्य जाते हे दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती हे, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस ग़रीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी तकदीर में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोश्नी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन हे, कभी हरा भादों नहीं। लाला फ़तहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे। | |||
कहते हें, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। | कहते हें, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फ़तहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘हारचंद’ कहा जाए तो कदाचित यह अत्युक्ति न होगी। दफ़्तर में हार, ज़िंदगी में हार, मित्रों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर निराशाऍं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियॉँ ती; भाई एक भी नहीं, भौजाइयॉँ दो, गॉँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में आया ओर मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं—जिससे मित्रता हुई, उसने धोखा दिया, इस पर तंदुरस्ती भी अच्छी नहीं—बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आँखों में ज्योंति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ़्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है; इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था, दफ़्तर था। नौकरी की खैर मनाते और ज़िंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गयी थी। | ||
2 | 2 | ||
जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। | जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फ़तहचंद साढ़े पॉँच बजे दफ़्तर से लौटै तो चिराग जल गये थे। दफ़्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते; चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज़ निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ़्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुँह-हाथ धाने के लिए लोटा-गिलास मॉँज रही थी। बोली—उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ़्तर से आये ही हैं, और बुलावा आ गया है? | ||
चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा | चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा ज़रूरी काम है। | ||
फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा—क्या बात है? | फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा—क्या बात है? | ||
शारदा—कोई नहीं | शारदा—कोई नहीं दफ़्तर का चपरासी है। | ||
फतहचंद ने सहम कर | फतहचंद ने सहम कर कहा—दफ़्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है? | ||
शारदा—हाँ, कहता हे, साहब बुला रहे है। यहाँ कैसा साहब हे तुम्हारार जब देखा, बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया! | शारदा—हाँ, कहता हे, साहब बुला रहे है। यहाँ कैसा साहब हे तुम्हारार जब देखा, बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया! | ||
Line 22: | Line 22: | ||
शारदा—जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेंगी। | शारदा—जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेंगी। | ||
यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट ओर सेव लायी। | यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट ओर सेव लायी। फ़तहचंद उठ कर खड़े हो गये, किन्तु खाने की चीज़ें देख करह चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देख कर चारपाई पर बैठ गये ओर प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले—लड़कियों को दे दिया है न? | ||
शारदा ने आँखे चढ़ाकर कहा—हाँ-हाँ; दे दिया है, तुम तो खाओ। | शारदा ने आँखे चढ़ाकर कहा—हाँ-हाँ; दे दिया है, तुम तो खाओ। | ||
Line 36: | Line 36: | ||
फतहचन्द ने दो क़दम दौड़ कर कहा—चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे डॉँट लगायें या दॉँत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बँगले ही पर है न? | फतहचन्द ने दो क़दम दौड़ कर कहा—चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे डॉँट लगायें या दॉँत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बँगले ही पर है न? | ||
चपरासी—भला, वह | चपरासी—भला, वह दफ़्तर क्यों आने लगा। बादशाह हे कि दिल्लगी? | ||
चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू | चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फ़तहचन्द धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हाँफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके क़दम उठातें जाते थें यहाँ तक कि जॉँघो में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा | ||
शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियॉँ उड़ने लगीं। | शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियॉँ उड़ने लगीं। | ||
Line 46: | Line 46: | ||
फतहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले—तुम जाओ, मैं आता हूँ। | फतहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले—तुम जाओ, मैं आता हूँ। | ||
वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये ओर सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगें चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। | वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये ओर सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगें चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फ़तहचन्द डरे कि यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायगा। ज़मीन पर हाथ टेक कर उठे ओर फिर चलें मगर कमज़ोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोइ्र बच्चा भी उन्हें ज़मीन पर गिरा सकता थां बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब बँगलें पर पहुँचे। साहब बँगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को अतो न देख कर मन में झल्लाते थे। | ||
चपरासी को देखते ही आँखें निकाल कर बोल—इतनी देर कहाँ था? | चपरासी को देखते ही आँखें निकाल कर बोल—इतनी देर कहाँ था? | ||
चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े | चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा—हुज़ूर! जब वह आयें तब तो; मै दौड़ा चला आ रहा हूँ। | ||
साहब ने पेर पटक कर कहा—बाबू क्या बोला? | साहब ने पेर पटक कर कहा—बाबू क्या बोला? | ||
चपरासी—आ रहे हे | चपरासी—आ रहे हे हुज़ूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले। | ||
इतने में पुतहचन्द अहाते के तार के उंदर से निकल कर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुक कर सलाम किया। | इतने में पुतहचन्द अहाते के तार के उंदर से निकल कर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुक कर सलाम किया। | ||
Line 60: | Line 60: | ||
साहब ने कड़कर कहा—अब तक कहाँ था? | साहब ने कड़कर कहा—अब तक कहाँ था? | ||
फतहचनद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका | फतहचनद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका ख़ून सूख गया। बोले—हुज़ूर, अभी-अभी तो दफ़्तर से गया हूँ, ज्यों ही चपरासी ने आवाज़ दी, हाजिर हुआ। | ||
साहब—झूठ बोलता है, झूठ बोलता हे, हम घंटे-भर से खड़ा है। | साहब—झूठ बोलता है, झूठ बोलता हे, हम घंटे-भर से खड़ा है। | ||
फतहचन्द—हुज़ूर, मे झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गयी होस, मगर घर से चलेन में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई। | |||
साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा हे, अपना कान पकड़ो! | साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा हे, अपना कान पकड़ो! | ||
फतहचन्द ने | फतहचन्द ने ख़ून की घँट पीकर कहा—हुज़ूर मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी.....। | ||
साहब—चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो! | साहब—चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो! | ||
Line 76: | Line 76: | ||
साहब—चपरासी! इस सूअर का कान पकड़ो। | साहब—चपरासी! इस सूअर का कान पकड़ो। | ||
चपरासी ने दबी जबान से | चपरासी ने दबी जबान से कहा—हुज़ूर, यह भी मेरे अफसर है, मै इनका कान कैसे पकडूँ? | ||
साहब—हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा। | साहब—हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा। | ||
चपरासी—हुज़ूर, मे याहँ नौकरी करने आया हूँ, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूँ। हुज़ूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूँ, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें। | |||
साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त करसके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहाँ खड़ रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। | साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त करसके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहाँ खड़ रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फ़तहचन्द अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिया। बोला—तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ। | ||
फतहचन्द ने कान हिलाते हुए कहा—कौन-सा फाइल? तुम बहरा हे सुनता नहीं? हम फाइल मॉँगता है। | फतहचन्द ने कान हिलाते हुए कहा—कौन-सा फाइल? तुम बहरा हे सुनता नहीं? हम फाइल मॉँगता है। | ||
Line 88: | Line 88: | ||
फतहचन्द ने किसी तरह दिलेर होकर कहा—आप कौन-सा फाइल मॉगते हें? | फतहचन्द ने किसी तरह दिलेर होकर कहा—आप कौन-सा फाइल मॉगते हें? | ||
साहब—वही फाइल जो हम माँगता हे। वही फाइल लाओ। अभी लाओं वेचारे | साहब—वही फाइल जो हम माँगता हे। वही फाइल लाओ। अभी लाओं वेचारे फ़तहचन्द को अब ओर कुछ पूछने की हिम्मत न हुई साहब बहादूर एक तो यों ही तेज-मिज़ाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड ओर सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचार क्या कर लेते? चुपके से दफ़्तर की तरफ चल पड़े। | ||
साहब ने कहा—दौड़ कर जाओ—दौड़ो। | साहब ने कहा—दौड़ कर जाओ—दौड़ो। | ||
फतहचनद ने | फतहचनद ने कहा—हुज़ूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता। | ||
साहब—ओ, तुम बहूत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा? | साहब—ओ, तुम बहूत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा? | ||
यह कह कर साहब हंटर लेने चले। | यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फ़तहचन्द दफ़्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होंते, तो उस बदमाश का ख़ून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर परूर चला देते; लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाश भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गये। | ||
3 | 3 | ||
फतहचनद | फतहचनद दफ़्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशा में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़िया-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज़ भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की? | ||
मगर इलाज की क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जात। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके | मगर इलाज की क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जात। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाज़े हाथ फैलाते? यदि उसके पास इतने रुपये होते, जिसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। ज़िन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का। | ||
आज | आज फ़तहचनद को अपनी शारीरिक कमज़ोरी पर जितना दु:ख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरूस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आँखें निकला लेते। कम से कम दन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था! ओर न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ? | ||
वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर औरभी झल्लाती थीं अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता—यही न कि साहब के खानसामें, बैरे सब उन पर पिल पड़ते ओर मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती—पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि | वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर औरभी झल्लाती थीं अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता—यही न कि साहब के खानसामें, बैरे सब उन पर पिल पड़ते ओर मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती—पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि ग़रीब को बेगुनाह जलील करना आसान नही। आखिर आज मैं मर जाऊँ, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेंगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था। | ||
इस अन्तिम विचार ने | इस अन्तिम विचार ने फ़तहचन्द के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े ओर साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार क़दम चले, मगर फिर खयाल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी; वह तो हो ही ली। कौन जाने, बँगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी ओर बच्चों का बिना बाप के जाने का खयाल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले। | ||
4 | 4 | ||
Line 118: | Line 118: | ||
शारदा ने गुस्से में आकर कहा—तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूआर को? | शारदा ने गुस्से में आकर कहा—तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूआर को? | ||
फतहचन्द—चपरासी बहुत शरीफ़ है। उसने | फतहचन्द—चपरासी बहुत शरीफ़ है। उसने साफ़ कह दिया—हुज़ूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया। | ||
शारदा—यही बहादुरी हे। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा? | शारदा—यही बहादुरी हे। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा? | ||
फतहचन्द—फटकारा क्यों | फतहचन्द—फटकारा क्यों नहीं—मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा—मेने भी जूता सँभाला। उसने मुझे छड़ियॉँ जमायीं—मैंने भी कई जूते लगाये! | ||
शारदा ने खुश होकर कहा—सच? इतना-सा मुँह हो गया होगा उसका! | शारदा ने खुश होकर कहा—सच? इतना-सा मुँह हो गया होगा उसका! | ||
Line 138: | Line 138: | ||
शारदा—हो जायगी, हो जाए; मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियॉँ दे बैठे। तुम्हे चाहिए था कि ज्योंही उसके मुँह से गालियॉँ निकली, लपक कर एक जूता रसीदद कर देते। | शारदा—हो जायगी, हो जाए; मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियॉँ दे बैठे। तुम्हे चाहिए था कि ज्योंही उसके मुँह से गालियॉँ निकली, लपक कर एक जूता रसीदद कर देते। | ||
फतहचन्द—तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। | फतहचन्द—तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। ज़रूर मुझे गोली मार देता। | ||
शारदा—देखी जाती। | शारदा—देखी जाती। | ||
Line 146: | Line 146: | ||
शारदा—जहाँ ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत हे। इज्जत गवॉँ कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आये होते तो मै करूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मै तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जल जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूँगी.....। कहाँ जाते हो, सुनो-सुनो कहाँ जाते हो? | शारदा—जहाँ ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत हे। इज्जत गवॉँ कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आये होते तो मै करूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मै तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जल जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूँगी.....। कहाँ जाते हो, सुनो-सुनो कहाँ जाते हो? | ||
फतहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं; बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह | फतहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं; बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमज़ोरी, आँखें में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट सी हो गयी थी। वह कमज़ोर बदन, पीला मुखड़ा दुर्बल बदनवाला, दफ़्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत भरा हुआ, मज़बूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसक डंडा लिया ओर अकड़ते हुए साहब के बँगले पर जा पहुँचे। | ||
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर | इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फ़तहचन्द ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का दंतजार न किया, खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठा कर अंदर गए। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा थां ज़मीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी; जेसी फ़तहचन्द की शादी में भी नहीं बिछी होगी। साहब बहादूर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देख कर कहा—तुम क्यों आया? बाहर जाओं, क्यों अन्दर चला आया? | ||
फतहचन्द ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा—तुमने मुझसे अभी फाइल मॉँगा था, वही फाइल लेकर आया हूँ। खाना खा लो, तो दिखाऊँ। तब तक में बैठा हूँ। इतमीनान से खाओ, शायद वह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो। | फतहचन्द ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा—तुमने मुझसे अभी फाइल मॉँगा था, वही फाइल लेकर आया हूँ। खाना खा लो, तो दिखाऊँ। तब तक में बैठा हूँ। इतमीनान से खाओ, शायद वह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो। | ||
साहब सन्नाटे में आ गये। | साहब सन्नाटे में आ गये। फ़तहचन्द की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कॉंप उठे। फ़तहचन्द के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आयाहै। ताकत में फ़तहचन्द उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि पह फ़तहचन्द को बुरा-भला कहते है, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बैठाये डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए; मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखे आप हिम्मत कहाँ जाती हैं? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का थां जब तक यकीन था कि फ़तहचन्द घुड़की, गाली, हंटर, ठाकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा,. तब तक आप शेर थे; अब वह त्योरियॉँ बदले, ड़डा सँभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खडा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने ड़डा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फ़ौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का संदेशा—माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत को जेल में डलवा देगे; परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान और दूरंदेश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा—ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज़ हें। हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे नाराज़ हैं? | ||
फतहचन्द ने तन करी कहा—तुमने अभी आध घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ो ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये? | फतहचन्द ने तन करी कहा—तुमने अभी आध घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ो ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये? | ||
Line 172: | Line 172: | ||
फतहचन्द—(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो! | फतहचन्द—(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो! | ||
साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि | साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फ़तहचन्द के हाथ से लकड़ी छीन लें; लेकिन फ़तहचन्द गाफिल न थे। साहब मेज पर से उठने न पाये थे कि उन्होंने डंडें का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही; चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गयी। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले—हम तुमको बरखास्त कर देगा। | ||
फतहचन्द—इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊँगा। कसान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसा बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पडना ही चाहता है! | फतहचन्द—इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊँगा। कसान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसा बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पडना ही चाहता है! | ||
यह कहकर | यह कहकर फ़तहचन्द ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाएे। कान पर हाथ रखकर बोले—अब अप खुश हुआ? | ||
‘फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’ | ‘फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’ | ||
Line 194: | Line 194: | ||
फतहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूँगा। | फतहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूँगा। | ||
यह कहते हुए | यह कहते हुए फ़तहचन्द कमरे से बाहर निकले और बड़े इतमीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीतन की पहली जीत थी। | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
Latest revision as of 07:48, 6 February 2021
चित्र:Icon-edit.gif | इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
दफ़्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मज़दूरों को आँखें दिखाओ, तो वह त्योरियॉँ बदल कर खड़ा हो जायकाह। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारों, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगहा से देख कर चला जाएेगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लत्तियॉँ झड़ने लगता हे; मगर बेचारे दफ़्तर के बाबू को आप चाहे आँखे दिखायें, डॉँट बतायें, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसक माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विकारों पर जो अधिपत्य होता हे, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हें। खंडहर के भी एक दिन भग्य जाते हे दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती हे, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस ग़रीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी तकदीर में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोश्नी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन हे, कभी हरा भादों नहीं। लाला फ़तहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।
कहते हें, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फ़तहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘हारचंद’ कहा जाए तो कदाचित यह अत्युक्ति न होगी। दफ़्तर में हार, ज़िंदगी में हार, मित्रों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर निराशाऍं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियॉँ ती; भाई एक भी नहीं, भौजाइयॉँ दो, गॉँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में आया ओर मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं—जिससे मित्रता हुई, उसने धोखा दिया, इस पर तंदुरस्ती भी अच्छी नहीं—बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आँखों में ज्योंति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ़्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है; इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था, दफ़्तर था। नौकरी की खैर मनाते और ज़िंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गयी थी।
2
जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फ़तहचंद साढ़े पॉँच बजे दफ़्तर से लौटै तो चिराग जल गये थे। दफ़्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते; चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज़ निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ़्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुँह-हाथ धाने के लिए लोटा-गिलास मॉँज रही थी। बोली—उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ़्तर से आये ही हैं, और बुलावा आ गया है?
चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा ज़रूरी काम है।
फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा—क्या बात है?
शारदा—कोई नहीं दफ़्तर का चपरासी है।
फतहचंद ने सहम कर कहा—दफ़्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है?
शारदा—हाँ, कहता हे, साहब बुला रहे है। यहाँ कैसा साहब हे तुम्हारार जब देखा, बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया!
फतहचंद न सँभल कर कहा—जरा सुन लूँ, किसलिए बुलाया है। मैंने सब काम खतम कर दिया था, अभी आता हूँ।
शारदा—जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेंगी।
यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट ओर सेव लायी। फ़तहचंद उठ कर खड़े हो गये, किन्तु खाने की चीज़ें देख करह चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देख कर चारपाई पर बैठ गये ओर प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले—लड़कियों को दे दिया है न?
शारदा ने आँखे चढ़ाकर कहा—हाँ-हाँ; दे दिया है, तुम तो खाओ।
इतने में छोटी में चपरासी ने फिर पुकार—बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही हैं।
शारदा—कह क्यों नहीं दते कि इस वक्त न आयेंगें
फतहचन्द ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियॉँ लगायी, एक गिलास पानी पिया ओर बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गयी।
चपरासी ने कहा—बाबू जी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपक ेचलिए, नहीं तो जाते ही डॉँट बतायेगा।
फतहचन्द ने दो क़दम दौड़ कर कहा—चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे डॉँट लगायें या दॉँत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बँगले ही पर है न?
चपरासी—भला, वह दफ़्तर क्यों आने लगा। बादशाह हे कि दिल्लगी?
चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फ़तहचन्द धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हाँफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके क़दम उठातें जाते थें यहाँ तक कि जॉँघो में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा
शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियॉँ उड़ने लगीं।
चपरासी ने ललकारा—जरा क़दम बढ़ाय चलो, बाबू!
फतहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले—तुम जाओ, मैं आता हूँ।
वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये ओर सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगें चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फ़तहचन्द डरे कि यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायगा। ज़मीन पर हाथ टेक कर उठे ओर फिर चलें मगर कमज़ोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोइ्र बच्चा भी उन्हें ज़मीन पर गिरा सकता थां बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब बँगलें पर पहुँचे। साहब बँगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को अतो न देख कर मन में झल्लाते थे।
चपरासी को देखते ही आँखें निकाल कर बोल—इतनी देर कहाँ था?
चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा—हुज़ूर! जब वह आयें तब तो; मै दौड़ा चला आ रहा हूँ।
साहब ने पेर पटक कर कहा—बाबू क्या बोला?
चपरासी—आ रहे हे हुज़ूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले।
इतने में पुतहचन्द अहाते के तार के उंदर से निकल कर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुक कर सलाम किया।
साहब ने कड़कर कहा—अब तक कहाँ था?
फतहचनद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका ख़ून सूख गया। बोले—हुज़ूर, अभी-अभी तो दफ़्तर से गया हूँ, ज्यों ही चपरासी ने आवाज़ दी, हाजिर हुआ।
साहब—झूठ बोलता है, झूठ बोलता हे, हम घंटे-भर से खड़ा है।
फतहचन्द—हुज़ूर, मे झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गयी होस, मगर घर से चलेन में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई।
साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा हे, अपना कान पकड़ो!
फतहचन्द ने ख़ून की घँट पीकर कहा—हुज़ूर मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी.....।
साहब—चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो!
फतहचन्द—जब मैंने कोई कुसूर किया हो?
साहब—चपरासी! इस सूअर का कान पकड़ो।
चपरासी ने दबी जबान से कहा—हुज़ूर, यह भी मेरे अफसर है, मै इनका कान कैसे पकडूँ?
साहब—हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।
चपरासी—हुज़ूर, मे याहँ नौकरी करने आया हूँ, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूँ। हुज़ूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूँ, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें।
साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त करसके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहाँ खड़ रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फ़तहचन्द अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिया। बोला—तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ।
फतहचन्द ने कान हिलाते हुए कहा—कौन-सा फाइल? तुम बहरा हे सुनता नहीं? हम फाइल मॉँगता है।
फतहचन्द ने किसी तरह दिलेर होकर कहा—आप कौन-सा फाइल मॉगते हें?
साहब—वही फाइल जो हम माँगता हे। वही फाइल लाओ। अभी लाओं वेचारे फ़तहचन्द को अब ओर कुछ पूछने की हिम्मत न हुई साहब बहादूर एक तो यों ही तेज-मिज़ाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड ओर सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचार क्या कर लेते? चुपके से दफ़्तर की तरफ चल पड़े।
साहब ने कहा—दौड़ कर जाओ—दौड़ो।
फतहचनद ने कहा—हुज़ूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।
साहब—ओ, तुम बहूत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा?
यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फ़तहचन्द दफ़्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होंते, तो उस बदमाश का ख़ून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर परूर चला देते; लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाश भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गये।
3
फतहचनद दफ़्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशा में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़िया-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज़ भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की?
मगर इलाज की क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जात। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाज़े हाथ फैलाते? यदि उसके पास इतने रुपये होते, जिसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। ज़िन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का।
आज फ़तहचनद को अपनी शारीरिक कमज़ोरी पर जितना दु:ख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरूस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आँखें निकला लेते। कम से कम दन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था! ओर न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ?
वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर औरभी झल्लाती थीं अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता—यही न कि साहब के खानसामें, बैरे सब उन पर पिल पड़ते ओर मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती—पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि ग़रीब को बेगुनाह जलील करना आसान नही। आखिर आज मैं मर जाऊँ, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेंगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था।
इस अन्तिम विचार ने फ़तहचन्द के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े ओर साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार क़दम चले, मगर फिर खयाल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी; वह तो हो ही ली। कौन जाने, बँगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी ओर बच्चों का बिना बाप के जाने का खयाल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।
4
घर में जाते ही शारदा ने पूछा—किसलिए बुलाया था, बड़ी देर हो गयी?
फतहचन्द ने चारपाई पर लेटते हुए कहा—नशे की सनक थी, और क्या? शैतान ने मुझे गालियॉँ दी, जलील कियां बसस, यहीं रट लगाए हुए था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा।
शारदा ने गुस्से में आकर कहा—तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूआर को?
फतहचन्द—चपरासी बहुत शरीफ़ है। उसने साफ़ कह दिया—हुज़ूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया।
शारदा—यही बहादुरी हे। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा?
फतहचन्द—फटकारा क्यों नहीं—मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा—मेने भी जूता सँभाला। उसने मुझे छड़ियॉँ जमायीं—मैंने भी कई जूते लगाये!
शारदा ने खुश होकर कहा—सच? इतना-सा मुँह हो गया होगा उसका!
फतहचन्द—चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी।
शारदा—बड़ा अच्छा किया तुमने ओर मारना चाहिए था। मे होती, तो बिना जान लिए न छोड़ती।
फतहचन्द—मार तो आया हूँ; लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है? नौकरी तो जायगी ही, शायद सज़ा भी काटनी पड़े।
शारदा—सज़ा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियॉँ दीं, क्यों छड़ी जमायी?
फतहचन्द—उसने सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की तरफ हो जायगी।
शारदा—हो जायगी, हो जाए; मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियॉँ दे बैठे। तुम्हे चाहिए था कि ज्योंही उसके मुँह से गालियॉँ निकली, लपक कर एक जूता रसीदद कर देते।
फतहचन्द—तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। ज़रूर मुझे गोली मार देता।
शारदा—देखी जाती।
फतहचन्द ने मुस्करा कर कहा—फिर तुम लोग कहाँ जाती?
शारदा—जहाँ ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत हे। इज्जत गवॉँ कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आये होते तो मै करूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मै तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जल जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूँगी.....। कहाँ जाते हो, सुनो-सुनो कहाँ जाते हो?
फतहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं; बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमज़ोरी, आँखें में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट सी हो गयी थी। वह कमज़ोर बदन, पीला मुखड़ा दुर्बल बदनवाला, दफ़्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत भरा हुआ, मज़बूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसक डंडा लिया ओर अकड़ते हुए साहब के बँगले पर जा पहुँचे।
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फ़तहचन्द ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का दंतजार न किया, खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठा कर अंदर गए। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा थां ज़मीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी; जेसी फ़तहचन्द की शादी में भी नहीं बिछी होगी। साहब बहादूर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देख कर कहा—तुम क्यों आया? बाहर जाओं, क्यों अन्दर चला आया?
फतहचन्द ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा—तुमने मुझसे अभी फाइल मॉँगा था, वही फाइल लेकर आया हूँ। खाना खा लो, तो दिखाऊँ। तब तक में बैठा हूँ। इतमीनान से खाओ, शायद वह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो।
साहब सन्नाटे में आ गये। फ़तहचन्द की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कॉंप उठे। फ़तहचन्द के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आयाहै। ताकत में फ़तहचन्द उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि पह फ़तहचन्द को बुरा-भला कहते है, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बैठाये डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए; मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखे आप हिम्मत कहाँ जाती हैं? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का थां जब तक यकीन था कि फ़तहचन्द घुड़की, गाली, हंटर, ठाकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा,. तब तक आप शेर थे; अब वह त्योरियॉँ बदले, ड़डा सँभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खडा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने ड़डा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फ़ौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का संदेशा—माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत को जेल में डलवा देगे; परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान और दूरंदेश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा—ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज़ हें। हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे नाराज़ हैं?
फतहचन्द ने तन करी कहा—तुमने अभी आध घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ो ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये?
साहब—मैने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा-हा! क्या मजाक है? क्या मैं पागल हूँ या दीवाना?
फतहचन्द—तो क्या मै झूठ बोल रहा हूँ? चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे।
साहब—कब की बात है?
फतहचन्द—अभी-अभी, कोई आधा घण्टा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिये थे।
साहब—ओ बाबू जी, उस वक्त हम नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ माई गाड़! हमको कुछ खबर नहीं।
फतहचन्द—नशा में अगर तुमने गोली मार दी होती, तो क्या मै मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ मुआफ हे, तो मै भी नशे मे हूँ। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूँगा। समझ गये कि नहीं! इधर उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैनें डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाए, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूँ, वह करते चलो; पकड़ों कान!
साहब ने बनावटी हँसी हँसकर कहा—वेल बाबू जी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहता है, तो हम आपसे माफी मॉँगता हे।
फतहचन्द—(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो!
साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फ़तहचन्द के हाथ से लकड़ी छीन लें; लेकिन फ़तहचन्द गाफिल न थे। साहब मेज पर से उठने न पाये थे कि उन्होंने डंडें का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही; चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गयी। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले—हम तुमको बरखास्त कर देगा।
फतहचन्द—इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊँगा। कसान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसा बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पडना ही चाहता है!
यह कहकर फ़तहचन्द ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाएे। कान पर हाथ रखकर बोले—अब अप खुश हुआ?
‘फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’
‘कभी नही।‘
‘अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूँ।‘
‘अब किसी को गाली न देगा।‘
‘अच्छी बात हे, अब मैं जाता हूँ, आप से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूँगा कि
तुमने मुझे गालियॉँ दीं, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गये?
साहब—आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तो हम तो बरखास्त नहीं करता।
फतहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूँगा।
यह कहते हुए फ़तहचन्द कमरे से बाहर निकले और बड़े इतमीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीतन की पहली जीत थी।