ग़बन उपन्यास भाग-38: Difference between revisions

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‘अच्छा, बुला लो!’
‘अच्छा, बुला लो!’


रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो कदम पीछे हट गई। देवीदीन वहां न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। उसकी आंखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, ह्रदय में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!
रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो क़दम पीछे हट गई। देवीदीन वहां न होता तो वह दो क़दम और आगे बढ़ी होती। उसकी आंखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, ह्रदय में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!


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वह रमानाथ—,जो पुलिस के भय से बाहर न निकलता था, जो देवीदीन के घर में चोरों की तरह पडा जिंदगी के दिन पूरे कर रहा था, आज दो महीनों से राजसी भोग-विलास में डूबा हुआ है। रहने को सुंदर सजा हुआ बंगला है, सेवा-टहल के लिए चौकीदारों का एक दल, सवारी के लिए मोटरब भोजन पकाने के लिए एक काश्मीरी बावरची है। बड़े-बडे अफसर उसका मुंह ताकष करते हैं। उसके मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हुई! इतने ही दिनों में उसके मिज़ाज में इतनी

नफासत आ गई है, मानो वह ख़ानदानी रईस हो विलास ने उसकी विवेक- बुद्धिको सम्मोहित-सा कर दिया है। उसे कभी इसका ख़याल भी नहीं आता कि मैं क्या कर रहा हूं और मेरे हाथों कितने बेगुनाहों का ख़ून हो रहा है। उसे एकांत-विचार का अवसर ही नहीं दिया जाता। रात को वह अधिकारियों के साथ सिनेमा या थिएटर देखने जाता है, शाम को मोटरों की सैर होती है। मनोरंजन के नित्य नए सामान होते रहते हैं। जिस दिन अभियुक्तों को मैजिस्ट्रेट ने सेशन

सुपुर्द किया, सबसे ज़्यादा ख़ुशी उसी को हुई। उसे अपना सौभाग्य-सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था।

पुलिस को मालूम था कि सेशन जज के इजलास में यह बहार न होगी। संयोग से जज हिन्दुस्तानी थे और निष्पक्षता के लिए बदनाम, पुलिस हो या चोर, उनकी निगाह में बराबर था। वह किसी के साथ रिआयत न करते थे। इसलिए पुलिस ने रमा को एक बार उन स्थानों की सैर कराना ज़रूरी समझा, जहां वारदातें हुई थीं। एक ज़मींदार की सजी-सजाई कोठी में डेरा पड़ा। दिन?भर लोग शिकार खेलते, रात को ग्रामोफोन सुनते, ताश खेलते और बज़रों पर नदियों की सैर करते। ऐसा जान पड़ता था कि कोई राजकुमार शिकार खेलने निकला है। इस भोग-विलास में रमा को अगर कोई अभिलाषा थी, तो यह कि जालपा भी यहां होती। जब तक वह पराश्रित था, दरिद्र था, उसकी विलासेंद्रियां मानो मूच्र्छित हो रही थीं। इन शीतल झोंकों ने उन्हें फिर सचेत कर दिया। वह इस कल्पना में मग्न था कि यह मुकदमा ख़त्म होते ही उसे अच्छी जगह मिल जायगी। तब वह जाकर जालपा को मना लावेगा और आनंद से जीवनसुख भोगेगा।

हां, वह नए प्रकार का जीवन होगा, उसकी मर्यादा कुछ और होगी, सिद्धान्त कुछ और होंगे। उसमें कठोर संयम होगा और पक्का नियांण! अब उसके जीवन का कुछ उद्देश्य होगा, कुछ आदर्श होगा। केवल खाना, सोना और रुपये के लिए हाय-हाय करना ही जीवन का व्यापार न होगा। इसी मुकदमे के साथ इस मार्गहीन जीवन का अंत हो जायगा। दुर्बल इच्छा ने उसे यह दिन दिखाया था और अब एक नए और संस्कृत जीवन का स्वप्न दिखा रही थी। शराबियों की तरह ऐसे मनुष्य रोज़ ही संकल्प करते हैं, लेकिन उन संकल्पों का अंत क्या होता है? नए-नए प्रलोभन सामने आते रहते हैं और संकल्प की अवधि भी बढ़ती चली जाती है। नए प्रभात का उदय कभी नहीं होता।

एक महीना देहात की सैर के बाद रमा पुलिस के सहयोगियों के साथ अपने बंगले पर जा रहा था। रास्ता देवीदीन के घर के सामने से था, कुछ दूर ही से उसे अपना कमरा दिखाई दिया। अनायास ही उसकी निगाह ऊपर उठ गई। खिड़की के सामने कोई खडाथा। इस वक्त देवीदीन वहां क्या कर रहा है? उसने ज़रा ध्यान से देखा। यह तो कोई औरत है! मगर औरत कहां से आई-

क्या देवीदीन ने वह कमरा किराए पर तो नहीं उठा दिया, ऐसा तो उसने कभी नहीं किया।

मोटर ज़रा और समीप आई तो उस औरत का चेहरा साफ नज़र आने लगा। रमा चौंक पड़ा। यह तो जालपा है! बेशक जालपा है! मगर नहीं, जालपा यहां कैसे आयगी? मेरा पता-ठिकाना उसे कहां मालूम! कहीं बुडढे ने उसे ख़त तो नहीं लिख दिया? जालपा ही है। नायब दारोग़ा मोटर चला रहा था। रमा ने बडी मित्रता के साथ कहा,सरदार साहब, एक मिनट के लिए रूक जाइए। मैं ज़रा देवीदीन से एक बात कर लूं। नायब ने मोटर ज़रा धीमी कर दी, लेकिन फिर कुछ सोचकर उसे आगे बढ़ा दिया।

रमा ने तेज़ होकर कहा, ‘आप तो मुझे कैदी बनाए हुए हैं।’

नायब ने खिसियाकर कहा, ‘आप तो जानते हैं, डिप्टी साहब कितनी जल्द जामे से बाहर हो जाते हैं।’

बंगले पर पहुंचकर रमा सोचने लगा, जालपा से कैसे मिलूं। वहां जालपा ही थी, इसमें अब उसे कोई शुबहा न था। आंखों को कैसे धोखा देता। ह्रदय में एक ज्वाला-सी उठी हुई थी, क्या करूं? कैसे जाऊं?’ उसे कपड़े उतारने की सुधि भी न रही। पंद्रह मिनट तक वह कमरे के द्वार पर खडारहा। कोई हिकमत न सूझी। लाचार पलंग पर लेटा रहा। ज़रा ही देर में वह फिर उठा और सामने सहन में निकल आया। सडक पर उसी वक्त बिजली रोशन हो गई। फाटक पर चौकीदार खडा था। रमा को उस पर इस समय इतना क्रोध आया, कि गोली मार दे। अगर मुझे कोई अच्छी जगह मिल गई, तो एक-एक से समझूंगा। तुम्हें तो डिसमिस कराके छोड़ूंगा। कैसा शैतान की तरह सिर पर सवार है। मुंह तो देखो ज़राब मालूम होता है ।करी की दुम है। वाह रे आपकी पगड़ी, कोई टोकरी ढोने वाला कुली है। अभी कुत्ता भूंक पड़े, तो आप दुम दबाकर भागेंगे, मगर यहां ऐसे डटे खड़े हैं मानो किसी किले के द्वार की रक्षा कर रहे हैं।

एक चौकीदार ने आकर कहा, ‘इसपिक्टर साहब ने बुलाया है। कुछ नए तवे मंगवाए हैं।

रमा ने झल्लाकर कहा, ‘मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।’

फिर सोचने लगा। जालपा यहां कैसे आई, अकेले ही आई है या और कोई साथ है? जालिम ने बुडढे से एक मिनट भी बात नहीं करने दिया। जालपा पूछेगी तो जरूर, कि क्यों भागे थे। साफ-साफ कह दूंगा, उस समय और कर ही क्या सकता था। पर इन थोड़े दिनों के कष्ट ने जीवन का प्रश्न तो हल कर दिया। अब आनंद से जिंदगी कटेगी। कोशिश करके उसी तरफ अपना तबादला करवा लूंगा। यह सोचते-सोचते रमा को ख़याल आया कि जालपा भी यहां मेरे साथ रहे, तो क्या हरज है। बाहर वालों से मिलने की रोक-टोक है। जालपा के लिए क्या रूकावट हो सकती है। लेकिन इस वक्त इस प्रश्न को छेड़ना उचित नहीं। कल इसे तय करूंगा। देवीदीन भी विचित्र जीव है। पहले तो कई बार आया, पर आज उसने भी सन्नाटा खींच लिया। कम-से-कम इतना तो हो सकता था कि आकर पहरे वाले कांस्टेबल से जालपा के आने की ख़बर मुझे देता। फिर मैं देखता कि कौन जालपा को नहीं आने देता। पहले इस तरह की कैद ज़रूरी थी, पर अब तो मेरी परीक्षा पूरी हो चुकी। शायद सब लोग ख़ुशी से राजी हो जाएंगे।

रसोइया थाली लाया। मांस एक ही तरह का था। रमा थाली देखते ही झल्ला गया। इन दिनों रूचिकर भोजन देखकर ही उसे भूख लगती थी। जब तक चार-पांच प्रकार का मांस न हो, चटनी-अचार न हो, उसकी तृप्ति न होती थी। बिगड़कर बोला, ‘क्या खाऊं तुम्हारा सिर- थाली उठा ले जाओ।‘

रसोइए ने डरते-डरते कहा,’हुजूर, इतनी जल्द और चीजें कैसे बनाता! अभी कुल दो घंटे तो आए हुए हैं।’

‘दो घंटे तुम्हारे लिए थोड़े होते हैं!’

‘अब हुजूर से क्या कहूं!’

‘मत बको।’

‘हुजूर’

‘मत बको - डैम!’

रसोइए ने फिर कुछ न कहा। बोतल लाया, बर्फ़ तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खडाहो गया। रमा को इतना क्रोध आ रहा था कि रसोइए को नोच खाए। उसका मिज़ाज इन दिनों बहुत तेज़ हो गया था। शराब का दौर शुरू हुआ, तो रमा का गुस्सा और भी तेज़ हो गया। लाल – लाल आंखों से देखकर बोला, ‘चाहूं तो अभी तुम्हारा कान पकड़कर निकाल दूं। अभी, इसी दम! तुमने समझा क्या है!’

उसका क्रोध बढ़ता देखकर रसोइया चुपके-से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो-चार लुकमे खाकर बाहर सहन में टहलने लगा। यही धुन सवार थी, कैसे यहां से निकल जाऊं। एकाएक उसे ऐसा जान पडाकि तार के बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हां, कोई खडा उसकी तरफ ताक रहा है। शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रमानाथ का दिल धड़कने लगा। कहीं षडयंत्रकारियों ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है! यह शंका उसे सदैव बनी रहती थी। इसी ख़याल से वह रात को बंगले के बाहर बहुत कम निकलता था। आत्म-रक्षा के भाव ने उसे अंदर चले जाने की प्रेरणा की। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर निकली। उसके प्रकाश में रमा ने देखा, वह अंधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी साफ नज़र आ रही है। फिर उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई, कोई मर्द यह वेश बदलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर बढ़ती गई, यहां तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज़ रमा की तरफ गेंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट गया, मगर वह केवल एक लिफाफा था। उसे कुछ तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा, तो वह छाया अंधकारमें विलीन हो गई थी। रमा ने लपककर वह लिफाफा उठा लिया। भय भी था और कौतूहल भी। भय कम था, कौतूहल अधिक। लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके ह्रदय में फुरहरियां-सी उड़ने लगीं। लिखावट जालपा की थी। उसने फौरन लिफाफा खोला। जालपा ही की लिखावट थी। उसने एक ही सांस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लंबी सांस ली। उसी सांस के साथ चिंता का वह भीषण भार जिसने आज छः महीने से उसकी आत्मा को दबाकर रक्खा था, वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवनरक्त चूस रही थी, वह सारी दुर्बलता, लज्जा, ग्लानि मानो उड़ गई, छू मंतर हो गई। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व, इतना आत्म-विश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोग़ा से कह दूं, मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है, लेकिन फिर ख़याल आया, बयान तो अब हो ही चुका, जितना अपयश मिलना था, मिल ही चुका, अब उसके फल से क्यों हाथ धोऊं। मगर इन सबों ने मुझे कैसा चकमा दिया है! और अभी तक मुगालते में डाले हुए हैं। सब-के-सब मेरी दोस्ती का दम भरते हैं, मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाए हुए हैं। अब भी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदल दूं, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो यही न होगा, मुझे कोई जगह न मिलेगी। बला से, इन लोगों के मनसूबे तो ख़ाक में मिल जाएंगे। इस दग़ाबाज़ी की सज़ा तो मिल जायगी। और, यह कुछ न सही, इतनी बडी बदनामी से तो बच जाऊंगा। यह सब शरारत जरूर करेंगे, लेकिन झूठा इलज़ाम लगाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं। जब मेरा यहां रहना साबित ही नहीं तो मुझ पर दोष ही क्या लग सकता है। सबों के मुंह में कालिख लग जायगी। मुंह तो दिखाया न जाएगा, मुकदमा क्या चलाएंगे। मगर नहीं, इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूंगा। कह दूंगा, अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, तो मैं शहादत दूंगा, वरना साफ कह दूंगा, इस मामले से मेरा कोई संबंध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोग़ा बनाकर भेज दें और वहां सडा करूं। लूंगा इंस्पेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए। वह चला कि इसी वक्त दारोग़ा से कह दूं, लेकिन फिर रूक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इतनी श्रद्धा उसे कभी न हुई थी, मानो वह कोई दैवी-शक्ति हो जिसे देवताओं ने उसकी रक्षा के लिए भेजा हो दस बज गए थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर ज़ोर से किवाड़ बंद कर दिए, जिसमें पहरे वाले सिपाही को मालूम हो, अंदर से किवाड़ बंद करके सो रहे हैं। वह अंधेरे बरामदे में एक मिनट खडा रहा। तब आहिस्ता से उतरा और कांटेदार गेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊं?’ शायद अभी जालपा बग़ीचे में हो देवीदीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे गांद जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और कांटों को बचाता हुआ सिर और कंधो को तार के बीच में डाला, पर न जाने कैसे कपड़े फंस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुडाना चाहा, तो आस्तीन कांटों में फंस गई। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बडे संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पारब ज़रा भी असावधानी हुई और कांटे उसकी देह में चुभ जाएंगे।

मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लंबा चीरा लगाता उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ खरोंचे लगेऋ पर इस समय कोई बंदूक का निशाना बांधकर भी उसके सामने खडा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक दिया, गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़लिया, धोती समेट ली और बग़ीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरेधीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न मिली, पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोडा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की ओर चला।

उसे ज़रा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बंगले से निकल आया हूं, पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है। मैं कैदी नहीं हूं, गुलामी नहीं लिखाई है।


आधी रात हो गई थी। देवीदीन भी आधा घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक नंगे-धड़ंगे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बांधा ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था। देवीदीन ने सशंक होकर कहा, ‘कौन है? ‘

सहसा पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला, ‘तुमने तो भैया खूब भेस बनाया है? कपड़े क्या हुए? ‘

रमानाथ—‘तार से निकल रहा था। सब उसके कांटों में उलझकर फट गए।‘

देवीदीन—‘राम राम! देह में तो कांटे नहीं चुभे? ‘

रमानाथ—‘कुछ नहीं, दो-एक खरोंचे लग गए। मैं बहुत बचाकर निकला।‘

देवीदीन—‘बहू की चिट्ठी मिल गई न? ‘

रमानाथ—‘हां, उसी वक्त मिल गई थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थी? ‘

देवीदीन—‘वह मेरे साथ नहीं थीं, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने लगाए हुए थीं।‘

रमानाथ—‘तुमने कोई ख़त लिखा था? ‘

देवीदीन—‘मैंने कोई ख़त-पत्तर नहीं लिखा भैया। जब वह आई तो मुझे आप ही अचंभा हुआ कि बिना जाने-बूझे कैसे आ गई। पीछे से उन्होंने बताया। वह सतरंज वाला नकसा उन्हीं ने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।‘

रमा की आंखें फैल गई। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही पराजय के भाव ने उसे कुछ खिकै कर दिया। यहां भी उसकी हार हुई! इस बुरी तरह!

बुढिया ऊपर गई हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा, ‘अरे क्या करती है? बहू से कह दे। एक आदमी उनसे मिलने आया है।‘

यह कहकर देवीदीन ने फिर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘चलो,अब सरकार में तुम्हारी पेसी होगी। बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़े गए। इतनी आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती! ‘

रमा का मनोल्लास क्रवित हो गया था। लज्जा से गडा जाता था। जालपा के प्रश्नों का उसके पास क्या जवाब था। जिस भय से वह भागा था, उसने अंत में उसका पीछा करके उसे परास्त ही कर दिया। वह जालपा के सामने सीधी आंखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुडा लिया और जीने के पास ठिठक गया। देवीदीन ने पूछा, ‘क्यों रूक गए? ‘

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘चलो, मैं आता हूं।‘

बुढिया ने ऊपर ही से कहा, ‘पूछो, कौन आदमी है, कहां से आया है? ‘

देवीदीन ने विनोद किया, ‘कहता है, मैं जो कुछ कहूंगा, बहू से ही कहूंगा।‘

‘कोई चिट्ठी लाया है?’

‘नहीं!’’

सन्नाटा हो गया। देवीदीन ने एक क्षण के बाद पूछा, ‘कह दूं, लौट जाय? ‘

जालपा जीने पर आकर बोली, ‘कौन आदमी है, पूछती तो हूं!‘

‘कहता है, बडी दूर से आया हूं!’

‘है कहां?’

‘यह क्या खडाहै!’

‘अच्छा, बुला लो!’

रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो क़दम पीछे हट गई। देवीदीन वहां न होता तो वह दो क़दम और आगे बढ़ी होती। उसकी आंखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, ह्रदय में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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