ग़बन उपन्यास भाग-50: Difference between revisions

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ज़ोहरा –‘बडी इनायत होगी।’
ज़ोहरा –‘बडी इनायत होगी।’


दारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको ज़रा देर में घर के दरवाजे पर उतार दिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, ‘अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ गप-शप हो । बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।‘
दारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको ज़रा देर में घर के दरवाज़े पर उतार दिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, ‘अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ गप-शप हो । बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।‘


ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक क़दम रखकर कहा, ‘जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौक़ा नहीं है।‘
ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक क़दम रखकर कहा, ‘जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौक़ा नहीं है।‘

Revision as of 05:26, 10 December 2012

दारोग़ा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बाद एक घंटे तक उसका इंतज़ार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए और देवीदीन के घर जा पहुंचेब वहां मालूम हुआ कि रमा को यहां से गए आधा घंटे से ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। वहां रमा का अब तक पता न था। समझे देवीदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रक्खा होगा। सरपट साइकिल दौडाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा,विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिए

और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बडा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है, एक ऊपर।

दारोग़ा ने साइकिल से उतरकर कहा, तुम बतलाते क्यों नहीं, ‘वह कहांगए?’

देवीदीन—‘मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब! यहां आए, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गए।’

दारोग़ा –‘वह कब इलाहाबाद जा रही हैं?’

देवीदीन—‘इलाहाबाद जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहां से न जाएंगी।’

दारोग़ा –‘मुझे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।’यह कहते हुए दारोग़ा नीचे की कोठरी में घुस गए और हर एक चीज़ को ग़ौर से देखा। फिर ऊपर चढ़गए। वहां तीन औरतों को देखकर चौंके, ज़ोहरा को शरारत सूझी, तो उसने लंबा-सा घूंघट निकाल लिया और अपने हाथ साड़ी

में छिपा लिए। दारोग़ाजी को शक हुआ। शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं!

देवीदीन से पूछा, ‘यह तीसरी औरत कौन है? ’

देवीदीन ने कहा, ‘मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।’

दारोग़ा –‘मुझी से उड़ते हो बचा! साड़ी पहनाकर मुलज़िम को छिपाना चाहते हो! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो, नीचे चली जायं। दूसरी औरत को यहीं रहने दो।’

जालपा हट गई, तो दारोग़ाजी ने ज़ोहरा के पास जाकर कहा, ‘क्यों हजरत, मुझसे यह चालें! क्या कहकर वहां से आए थे और यहां आकर मजे में आ गए । सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिए और मेरे साथ चलिए, देर हो रही है।’

यह कहकर उन्होंने ज़ोहरा का घूंघट उठा दिया। ज़ोहरा ने ठहाका मारा। दारोग़ाजी मानो फिसलकर विस्मय-सागर में पड़े । बोले- अरे, तुम हो ज़ोहरा! तुम यहां कहां ? ’

ज़ोहरा –‘अपनी डयूटी बजा रही हूं।’

‘और रमानाथ कहां गए ? तुम्हें तो मालूम ही होगा?’

‘वह तो मेरे यहां आने के पहले ही चले गए थे। फिर मैं यहीं बैठ गई और जालपा देवी से बात करने लगी।’

‘अच्छा, ज़रा मेरे साथ आओ। उनका पता लगाना है।’

ज़ोहरा ने बनावटी कौतूहल से कहा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं पहुंचे ?’

‘ना! न जाने कहां रह गए। ‘

रास्ते में दारोग़ा ने पूछा, ‘जालपा कब तक यहां से जाएगी ?’

ज़ोहरा—‘मैंने खूब पट्टी पढ़ाई है। उसके जाने की अब जरूरत नहीं है। शायद रास्ते पर आ जाय। रमानाथ ने बुरी तरह डांटा है। उनकी धमकियों से डर गई है। ’ दारोग़ा –‘तुम्हें यकीन है कि अब यह कोई शरारत न करेगी? ’

ज़ोहरा –‘हां, मेरा तो यही ख़याल है। ’

दारोग़ा –‘तो फिर यह कहां गया? ’

ज़ोहरा –‘कह नहीं सकती।’

दारोग़ा –‘मुझे इसकी रिपोर्ट करनी होगी। इंस्पेक्टर साहब और डिप्टी साहब को इत्तला देना जरूरी है। ज़्यादा पी तो नहीं गया था? ’

ज़ोहरा –‘पिए हुए तो थे। ’

दारोग़ा –‘तो कहीं फिर-गिरा पडाहोगा। इसने बहुत दिक किया! तो मैं ज़रा उधर जाता हूं। तुम्हें पहुंचा दूं, तुम्हारे घर तक।’

ज़ोहरा –‘बडी इनायत होगी।’

दारोग़ा ने ज़ोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको ज़रा देर में घर के दरवाज़े पर उतार दिया, मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले, ‘अब तो जाने का जी नहीं चाहता, ज़ोहरा! चलो, आज कुछ गप-शप हो । बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।‘

ज़ोहरा ने जीने के ऊपर एक क़दम रखकर कहा, ‘जाकर पहले इंस्पेक्टर साहब से इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौक़ा नहीं है।‘

दारोग़ा ने मोटर साइकिल से उतरकर कहा, ‘नहीं, अब न जाऊंगा, ज़ोहरा!सुबह देखी जायगी। मैं भी आता हूं।‘

ज़ोहरा –‘आप मानते नहीं हैं। शायद डिप्टी साहिब आते हों। आज उन्होंने कहला भेजा था।‘

दारोग़ा-‘मुझे चकमा दे रही हो ज़ोहरा, देखो, इतनी बेवफाई अच्छी नहीं।‘

ज़ोहरा ने ऊपर चढ़कर द्वार बंद कर लिया और ऊपर जाकर खिड़की से सिर निकालकर बोली, ‘आदाब अर्ज।‘

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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