प्रतिज्ञा -प्रेमचंद: Difference between revisions

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उपन्यास में प्रेमचन्द का समाज-सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण और आर्य-समाज का प्रभाव मिलता है। कला की दृष्टि से वह उत्कृष्ट कोटि की रचना नहीं है।
उपन्यास में प्रेमचन्द का समाज-सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण और आर्य-समाज का प्रभाव मिलता है। कला की दृष्टि से वह उत्कृष्ट कोटि की रचना नहीं है।


 
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Revision as of 11:22, 4 March 2012

प्रतिज्ञा -प्रेमचंद
लेखक मुंशी प्रेमचंद
मूल शीर्षक प्रतिज्ञा
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स
प्रकाशन तिथि 1904
ISBN 81-7182-620-2
देश भारत
पृष्ठ: 167
भाषा हिन्दी
विषय सामाजिक, यथार्थवादी
प्रकार उपन्यास

प्रेमचन्द कृत उपन्यास, जिसका प्रकाशन 1904 ई. के लगभग हुआ था।

विधवा समस्या

‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है। ‘प्रतिज्ञा’ का नायक विधुर अमृतराय किसी विधवा से शादी करना चाहता है ताकि किसी नवयौवना का जीवन नष्ट न हो। नायिका पूर्णा आश्रयहीन विधवा है। समाज के भूखे भेड़िये उसके संचय को तोड़ना चाहते हैं। उपन्यास में प्रेमचंद ने विधवा समस्या को नये रूप में प्रस्तुत किया है एवं विकल्प भी सुझाया है।

विशेष

इसी पुस्तक में प्रेमचंद का अंतिम और अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ भी है। इसका थोड़ा-बहुत अंश ही वे लिख पाए थे। यह ‘गोदान’ के तुरंत बाद की कृति है। जिसमें लेखक अपनी शक्तियों के चरमोत्कर्ष पर था।

कथानक

प्रेमचन्द कृत उपन्यास (प्र.1904 ई. के लगभग) 'प्रतिज्ञा' में लाला बदरीप्रसाद और देवकी, पण्डित बसंतकुमार और पूर्णा के परिवारों, विधुर अमृतराय और दाननाथ की कथा है और प्रेमचन्द्र ने विधवा नारी की समस्या उठाई है। लाला बदरीप्रसाद की एक पुत्री प्रेमा और एक पुत्र कमलाप्रसाद तथा पुत्रवधू सुमित्रा हैं। अमृतराय और दाननाथ घनिष्ठ मित्र है। और प्रेमा से प्रेम करते है। प्रेमा अमृतराय की साली है। अमृतराय अमरनाथ का भाषण सुनकर प्रेमा से विवाह न कर किसी विधवा से विवाह करने की प्रतिज्ञा करते तथा अपना जीवन निस्सहाय विधवाओं की सहायता के लिए अर्पित कर देते हैं। प्रेमा का पिता उसका विवाह दाननाथ के साथ कर देता है, यद्यपि प्रेमा और अमृतराय एक-दूसरे को अपने-अपने हृदय में स्थान दिये रहते हैं। प्रेमा पत्नी के रूप में अपने कर्त्तव्य-पथ से विचलित न होकर पतिव्रत धर्म का पालन करती है। गंगा में डूब जाने के कारण बसंतकुमार की मृत्यु हो जाने के उपरांत उसकी पत्नी पूर्णा प्रेमा के पिता लाला बदरीप्रसाद के यहाँ आकर रहने लगती है, किंतु कृपण और दुराचारी तथा विलासी कमलाप्रसाद अपनी पत्नी सुमित्रा से उदासीन रहने के कारण अब पूर्णा को अपने प्रेमजाल में फाँसने की चेष्टा में रत रहता है और साथ ही अमृतराय की नारी-सहायता सम्बन्धी योजनाओं का विरोध करता है। दाननाथ भी अपने मित्र का विरोध करता है-अपने प्रति प्रेमा के प्रेम की परीक्षा करने के लिए। प्रेमा यद्यपि अपने पतिव्रत में कोई अंतर नहीं आने देती किंतु उसकी सहानुभूति पूर्णत: अमृतराय की सहायता भी करती है। उधर एक दिन कमलाप्रसाद पूर्णा को अपने बाग़ में ले जाकर बलात्कार करने की चेष्टा करने में उसके द्वारा घायल होता है। पूर्णा अमृतराय के आश्रम में चली जाती है। कमलाप्रसाद सुधरकर अपना दुराचरण छोड़ देता है और सुमित्रा के साथ सुखपूर्वक रहने लगता है। अमृतराय ने आश्रम के लिए जीवन अर्पित कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

समाज-सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण

उपन्यास में प्रेमचन्द का समाज-सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण और आर्य-समाज का प्रभाव मिलता है। कला की दृष्टि से वह उत्कृष्ट कोटि की रचना नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 346।

बाहरी कड़ियाँ

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