ग़बन उपन्यास: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "ह्रदय" to "हृदय") |
||
Line 22: | Line 22: | ||
}} | }} | ||
बरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह - रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये फुहारें मानो चिंताओं को | बरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह - रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये फुहारें मानो चिंताओं को हृदय से धो डालती हैं । मानो मुरझाए हुए मन को भी हरा कर देती हैं । सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं । घानी साडियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है । | ||
इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीज़ें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, ख़ूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज़ ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज़ पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली--अम्मां, मैं यह हार लूंगी। | इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीज़ें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, ख़ूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज़ ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज़ पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली--अम्मां, मैं यह हार लूंगी। | ||
Line 28: | Line 28: | ||
माता ने कहा—यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी। | माता ने कहा—यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी। | ||
बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा--बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जाएगा! | बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा--बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जाएगा! | ||
माता के | माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया। | ||
बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी। | बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी। | ||
Line 50: | Line 50: | ||
यह हार छ सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के | यह हार छ सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के | ||
लिए आसान न था। ऐसे कौन बडे ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके | लिए आसान न था। ऐसे कौन बडे ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भंयकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे, तभी तो जो चीज़ ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी। | ||
लेकिन ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल | लेकिन ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल |
Revision as of 09:54, 24 February 2017
चित्र:Icon-edit.gif | इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
ग़बन उपन्यास
| |
लेखक | मुंशी प्रेमचंद |
मूल शीर्षक | ग़बन |
प्रकाशक | राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशन तिथि | 1930 |
ISBN | 81-7028-336-1 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 256 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | सामाजिक, यथार्थवादी |
प्रकार | उपन्यास |
बरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह - रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये फुहारें मानो चिंताओं को हृदय से धो डालती हैं । मानो मुरझाए हुए मन को भी हरा कर देती हैं । सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं । घानी साडियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है ।
इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीज़ें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, ख़ूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज़ ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज़ पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली--अम्मां, मैं यह हार लूंगी। मां ने बिसाती से पूछा--बाबा, यह हार कितने का है - बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा— ख़रीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें। माता ने कहा—यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी। बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा--बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जाएगा! माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।
बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी।
महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे - से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोडा, कई गाएं- - भैंसें। वेतन कुल पांच रुपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफ़ी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता--तेरे भाई क्या हुए, तो वह बडी सरलता से कहती--बडी दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लङके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूंक - फूंककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूंक - फूंककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब? दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई न कोई आभूषण ज़रूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज़ से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुडियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पडता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचता ही न था। एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साके बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली--बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा—ला दूंगा, बेटी! कब ला दीजिएगा
बहुत जल्दी ।
बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा—अम्मांजी, मुझे भी अपना सा हार बनवा दो।
मां—वह तो बहुत रुपयों में बनेगा, बेटी!
जालपा—तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?
मां ने मुस्कराकर कहा—तेरे लिए तेरी ससुराल से आएगा।
यह हार छ सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के
लिए आसान न था। ऐसे कौन बडे ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भंयकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे, तभी तो जो चीज़ ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी।
लेकिन ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल
से भी न आया तो- उसने सोचा--तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।
इस तरह हंसते-खेलते सात वर्ष कट गए। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।
भाग-1 | भाग-2 | भाग-3 | भाग-4 | भाग-5 | भाग-6 | भाग-7 | भाग-8 | भाग-9 | भाग-10 | भाग-11 | भाग-12 | भाग-13 | भाग-14 | भाग-15 | भाग-16 | भाग-17 | भाग-18 | उभाग-19 | भाग-20 | भाग-21 | भाग-22 | भाग-23 | भाग-24 | भाग-25 | भाग-26 | भाग-27 | भाग-28 | भाग-29 | भाग-30 | भाग-31 | भाग-32 | भाग-33 | भाग-34 | भाग-35 | भाग-36 | भाग-37 | भाग-38 | भाग-39 | भाग-40 | भाग-41 | भाग-42 | भाग-43 | भाग-44 | भाग-45 | भाग-46 | भाग-47 | भाग-48 | भाग-49 | भाग-50 | भाग-51 | भाग-52 | भाग-53 |