ग़बन उपन्यास भाग-10: Difference between revisions
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जालपा ने उछलकर पूछा--सच! कितने की जगह है? | जालपा ने उछलकर पूछा--सच! कितने की जगह है? | ||
रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द | रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक़्क़ी होगी। जगह आमदनी की है। | ||
जालपा ने उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते! | जालपा ने उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते! |
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रमा दफ़्तर से घर पहुंचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ़्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रूका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि ज़ोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रूका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन
तो केवल तीस ही रुपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रुपये महीने भी बच जायं, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।
जालपा उसे देखते ही बोली--यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?
रमानाथ--इसी नौकरी की फ़िक्र में पडा हुआ हूं। इस वक्त दफ़्तर से चला आता हूं। म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तरमें मुझे एक जगह मिल गई।
जालपा ने उछलकर पूछा--सच! कितने की जगह है?
रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक़्क़ी होगी। जगह आमदनी की है।
जालपा ने उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते!
रमानाथ--मिल तो सकती थी सौ रुपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रुपये ऊपर से मिल जाएंगे।
जालपा--तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?
रमा ने हंसकर कहा--नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बडे महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे।
मैं जिसे चाहूं दिनभर दफ़्तर में खडा रक्खूं, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।
जालपा संतुष्ट हो गई, बोली--हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।
रमानाथ--वह तो करूंगा ही।
जालपा--अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा?जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बडी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहां मेरा भी कोई अधिकार है।
रमानाथ--हां, जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।
जालपा ने उल्लसित होकर कहा--हां जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।
इतने में डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले--तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?
रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोलाब उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हंसकर बोला--ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज़ तो बहुत अच्छी मालूम होती है।
जालपा ने कुंठित स्वर में कहा--अम्मांजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।
रमा ने विस्मित होकर कहा--लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज़ न होंगी?
जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा--मेरी बला से, रानी ऱूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूं। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जाएंगे। मैं अम्मांजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।
रमा ने संतोष देते हुए कहा--मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।
जालपा--मैं इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।
रमानाथ--आखिर क्यों?
जालपा--मेरी इच्छा!
रमानाथ--इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?
जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का ह्रदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।
माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला--ज़रा अम्मां और बाबू जी को तो दिखा दूं। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए। जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली--वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं उनसे पूछूं - केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।
यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपडा लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कहा--ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जाएगी। इस पर जालपा ने कठोर नजरों से देखकर कहा--जब तक मैं इसे लौटान दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे ह्रदय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो। एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिये हुए चिंतित भाव से नीचे चला।
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