कर्मभूमि उपन्यास भाग-2 अध्याय-5: Difference between revisions

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मुन्नी ने भोलेपन से कहा-तुम चले आए, तो नाचकर क्या करती-
मुन्नी ने भोलेपन से कहा-तुम चले आए, तो नाचकर क्या करती-


अमर ने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा-सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी-
अमर ने उसकी आंखों में आँखेंं डालकर कहा-सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी-


मुन्नी उससे आंखें मिलाकर बोली-मैं तो तुमसे कभी झूठ नहीं बोली।
मुन्नी उससे आँखेंं मिलाकर बोली-मैं तो तुमसे कभी झूठ नहीं बोली।


'मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना।'
'मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना।'

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गांव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियां बज रही है गांव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बंद है। लोग उसे भी खींच लाए हैं।

पयाग ने कहा-चलो भैया, तुम भी कुछ करतब दिखाओ। सुना है, तुम्हारे देस में लोग खूब नाचते हैं।

अमर ने जैसे क्षमा-सी मांगी-भाई, मुझे तो नाचना नहीं आता।

उसकी इच्छा हो रही है कि नाचना आता, तो इस समय सबको चकित कर देता।

युवकों और युवतियों के जोड़ बंधो हुए हैं। हरेक जोड़ दस-पंद्रह मिनट तक थिरककर चला जाता है। नाचने में कितना उन्माद, कितना आनंद है, अमर ने न समझा था।

एक युवती घूंघट बढ़ाए हुए रंगभूमि में आती है इधर से पयाग निकलता है। दोनों नाचने लगते हैं। युवती के अंगों में इतनी लचक है, उसके अंग-विलास में भावों की ऐसी व्यंजना है कि लोग मुग्ध हुए जाते हैं।

इस जोड़ के बाद दूसरा जोड़ आता है। युवक गठीला जवान है, चौड़ी छाती, उस पर सोने की मुहर, कछनी काछे हुए। युवती को देखकर अमर चौंक उठा। मुन्नी है। उसने घेरदार लहंगा पहना है, गुलाबी ओढ़नी ओढ़ी है, और पांव में पैजनियां बंध ली हैं। गुलाबी घूंघट में दोनों कपोल फूलों की भांति खिले हुए हैं। दोनों कभी हाथ-में-हाथ मिलाकर, कभी कमर पर हाथ रखकर, कभी कूल्हों को ताल से मटकाकर नाचने में उन्मत्ता हो रहे हैं। सभी मुग्ध नेत्रों से इन कलाविदों की कला देख रहे हैं। क्या फुरती है, क्या लचक है और उनकी एक-एक लचक में, एक-एक गति में कितनी मार्मिकता, कितनी मादकता दोनों हाथ-में-हाथ मिलाए, थिरकते हुए रंगभूमि के उस सिरे तक चले जाते हैं और क्या मजाल कि एक गति भी बेताल हो।

पयाग ने कहा-देखते हो भैया, भाभी कैसा नाच रही है- अपना जोड़ नहीं रखती।

अमर ने विरक्त मन से कहा-हां, देख तो रहा हूं।

'मन हो, तो उठो, मैं उस लौंडे को बुला लूं।'

'नहीं, मुझे नहीं नाचना है।'

मुन्नी नाच रही थी कि अमर उठकर घर चला आया। यह बेशर्मी अब उससे नहीं सही जाती।

एक क्षण के बाद मुन्नी ने आकर कहा-तुम चले क्यों आए, लाला- क्या मेरा नाचना अच्छा न लगा-

अमर ने मुंह फेरकर कहा-क्या मैं आदमी नहीं हूं कि अच्छी चीज़ को बुरा समझूं-

मुन्नी और समीप आकर बोली-तो फिर चले क्यों आए-

अमर ने उदासीन भाव से कहा-मुझे एक पंचायत में जाना है। लोग बैठे मेरी राह देख रहे होंगे। तुमने क्यों नाचना बंद कर दिया-

मुन्नी ने भोलेपन से कहा-तुम चले आए, तो नाचकर क्या करती-

अमर ने उसकी आंखों में आँखेंं डालकर कहा-सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी-

मुन्नी उससे आँखेंं मिलाकर बोली-मैं तो तुमसे कभी झूठ नहीं बोली।

'मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना।'

मुन्नी उदास होकर बोली-तो तुम इतनी जरा-सी बात पर रूठ गए- जरा किसी से पूछो, मैं आज कितने दिनों के बाद नाची हूं। दो साल से मैं नफाड़े के पास नहीं गई। लोग कह-कहकर हार गए। आज तुम्हीं ले गए, और अब उलटे तुम्हीं नाराज होते हो ।

मुन्नी घर में चली गई। थोड़ी देर बाद काशी ने आकर कहा-भाभी, तुम यहां क्या कर रही हो- वहां सब लोग तुम्हें बुला रहे हैं।

मुन्नी ने सिरदर्द का बहाना किया।

काशी आकर अमर से बोला-तुम क्यों चले आए, भैया- क्या गंवारों का नाच-गाना अच्छा न लगा।

अमर ने कहा-नहीं जी, यह बात नहीं। एक पंचायत में जाना है देर हो रही है।

काशी बोला-भाभी नहीं जा रही है। इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है। तुम चलकर कह दो, तो साइत चली जाए। कौन रोज-रोज यह दिन आता है। बिरादरी वाली बात है। लोग कहेंगे, हमारे यहां काम आ पड़ा, तो मुंह छिपाने लगे।

अमर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुमने समझाया नहीं-

फिर अंदर जाकर कहा-मुझसे नाराज हो गई, मुन्नी-

मुन्नी आंगन में आकर बोली-तुम मुझसे नाराज हो गए हो कि मैं तुमसे नाराज हो गई-

'अच्छा, मेरे कहने से चलो।'

'जैसे बच्चे मछलियों को खेलाते हैं, उसी तरह तुम मुझे खेला रहे हो, लाला जब चाहा रूला दिया जब चाहा हंसा दिया।'

'मेरी भूल थी, मुन्नी क्षमा करो।'

'लाला, अब तो मुन्नी तभी नाचेगी, जब तुम उसका हाथ पकड़कर कहोगे-चलो हम-तुम नाचें। वह अब और किसी के साथ न नाचेगी।'

'तो अब नाचना सीखूं?'

मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा-मेरे साथ नाचना चाहोगे, तो आप सीखोगे।

'तुम सिखा दोगी?'

'तुम मुझे रोना सिखा रहे हो, मैं तुम्हें नाचना सिखा दूंगी।'

'अच्छा चलो।'

कॉलेज के सम्मेलनों में अमर कई बार ड्रामा खेल चुका था। स्टेज पर नाचा भी था, गाया भी था पर उस नाच और इस नाच में बड़ा अंतर था। वह विलासियों की कर्म-क्रीड़ा थी, यह श्रमिकों की स्वच्छंद केलि। उसका दिल सहमा जाता था।

उसने कहा-मुन्नी, तुमसे एक वरदान मांगता हूं।

मुन्नी ने ठिठककर कहा-तो तुम नाचोगे नहीं-

'यही तो तुमसे वरदान मांग रहा हूं।'

अमर 'ठहरो-ठहरो' कहता रहा पर मुन्नी लौट पड़ी।

अमर भी अपनी कोठरी में चला आया, और कपड़े पहनकर पंचायत में चला गया। उसका सम्मान बढ़ रहा है। आस-पास के गांवों में भी जब कोई पंचायत होती है, तो उसे अवश्य बुलाया जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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