कर्मभूमि उपन्यास भाग-2 अध्याय-6: Difference between revisions
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आज सलोनी जितनी खुश है, उतनी शायद और कभी न हुई हो। वही बुढ़िया, जिसके द्वार पर कोई बैल बंध देता, तो लड़ने को तैयार हो जाती, जो बच्चों को अपने द्वार पर गोलियां न खेलने देती, आज अपने पुरखों का घर देकर अपना जीवन सफल समझ रही है। यह कुछ असंगत-सी बात है पर दान कृपण ही दे सकता है । हां, दान का हेतु ऐसा होना चाहिए जो उसकी नजर में उसके मर-मर संचे हुए धन के योग्य हो। | आज सलोनी जितनी खुश है, उतनी शायद और कभी न हुई हो। वही बुढ़िया, जिसके द्वार पर कोई बैल बंध देता, तो लड़ने को तैयार हो जाती, जो बच्चों को अपने द्वार पर गोलियां न खेलने देती, आज अपने पुरखों का घर देकर अपना जीवन सफल समझ रही है। यह कुछ असंगत-सी बात है पर दान कृपण ही दे सकता है । हां, दान का हेतु ऐसा होना चाहिए जो उसकी नजर में उसके मर-मर संचे हुए धन के योग्य हो। | ||
चटपट काम शुरू हो जाता है। घरों से लकड़ियां निकल आईं, रस्सी निकल आई, मजूर निकल आए, पैसे निकल आए। न किसी से कहना पड़ा, न सुनना। वह उनकी अपनी शाला थी। उन्हीं के लड़के-लड़कियां तो पढ़ती थीं। और इन छ:-सात महीने में ही उन पर शिक्षा का कुछ असर भी दिखाई देने लगा था। वह अब साफ रहते हैं, झूठ कम बोलते हैं, झूठे बहाने कम करते हैं, गालियां कम बकते हैं, और घर से कोई | चटपट काम शुरू हो जाता है। घरों से लकड़ियां निकल आईं, रस्सी निकल आई, मजूर निकल आए, पैसे निकल आए। न किसी से कहना पड़ा, न सुनना। वह उनकी अपनी शाला थी। उन्हीं के लड़के-लड़कियां तो पढ़ती थीं। और इन छ:-सात महीने में ही उन पर शिक्षा का कुछ असर भी दिखाई देने लगा था। वह अब साफ रहते हैं, झूठ कम बोलते हैं, झूठे बहाने कम करते हैं, गालियां कम बकते हैं, और घर से कोई चीज़ चुरा कर नहीं ले जाते। न उतनी ज़िद ही करते हैं। घर का जो कुछ काम होता है, उसे शौक से करते हैं। ऐसी शाला की कौन मदद न करेगा- | ||
फागुन का शीतल प्रभात सुनहरे वस्त्र पहने पहाड़ पर खेल रहा था। अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया। यह बात क्या है- और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे। आज इतनी देर हो गई और किसी का पता नहीं। | फागुन का शीतल प्रभात सुनहरे वस्त्र पहने पहाड़ पर खेल रहा था। अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया। यह बात क्या है- और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे। आज इतनी देर हो गई और किसी का पता नहीं। | ||
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'मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूंगी।' | 'मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूंगी।' | ||
'नहीं मुन्नी जिस घर में वह | 'नहीं मुन्नी जिस घर में वह चीज़ पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायेगा।' | ||
सहसा शोर सुनकर अमर ने आंखें उठाईं, तो देखा कि पंद्रह-बीस आदमी बांस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे हैं। सामने कई लड़के उछलते-कूदते तालियां बजाते चले आते थे। | सहसा शोर सुनकर अमर ने आंखें उठाईं, तो देखा कि पंद्रह-बीस आदमी बांस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे हैं। सामने कई लड़के उछलते-कूदते तालियां बजाते चले आते थे। | ||
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गूदड़ ने समझौते के भाव से कहा-आखिर कहते क्या हैं- | गूदड़ ने समझौते के भाव से कहा-आखिर कहते क्या हैं- | ||
मुन्नी झुंझलाकर बोली-अब उन्हीं से जाकर पूछो। जो | मुन्नी झुंझलाकर बोली-अब उन्हीं से जाकर पूछो। जो चीज़ और किसी ऊंची जात वाले नहीं खाते, उसे हम क्यों खाएं, इसी से तो लोग हमें नीच समझते हैं। | ||
पयाग ने आवेश में कहा-तो हम कौन किसी बाम्हन-ठाकुर के घर बेटी ब्याहने जाते हैं- बाम्हनों की तरह किसी के द्वार पर भीख मांगने तो नहीं जाते यह तो अपना-अपना रिवाज है। | पयाग ने आवेश में कहा-तो हम कौन किसी बाम्हन-ठाकुर के घर बेटी ब्याहने जाते हैं- बाम्हनों की तरह किसी के द्वार पर भीख मांगने तो नहीं जाते यह तो अपना-अपना रिवाज है। |
Revision as of 13:36, 1 October 2012
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सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाले के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह मांगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे बातें कर रहे थे कि नई शाला कहां बनाई जाए, गांव में तो बैलों के बंधने की जगह नहीं। सलोनी उनकी बातें सुनती रही। फिर एकाएक बोल उठी-मेरा घर क्यों नहीं ले लेते- बीस हाथ पीछे खाली जगह पड़ी है। क्या इतनी ज़मीन में तुम्हारा काम नहीं चलेगा-
दोनों आदमी चकित होकर सलोनी का मुंह ताकने लगे।
अमर ने पूछा-और तू रहेगी कहां, काकी-
सलोनी ने कहा-उंह मुझे घर-द्वार लेकर क्या करना है बेटा- तुम्हारी ही कोठरी में आकर एक कोने में पड़ी रहूंगी।
गूदड़ ने मन में हिसाब लगाकर कहा-जगह तो बहुत निकल आएगी।
अमर ने सिर हिलाकर कहा-मैं काकी का घर नहीं लेना चाहता। महन्तजी से मिलकर गांव के बाहर पाठशाला बनवाऊंगा।
काकी ने दु:खित होकर कहा-क्या मेरी जगह में कोई छूत लगी है, भैया-
गूदड़ ने फैसला कर दिया। काकी का घर मदरसे के लिए ले लिया जाए। उसी में एक कोठरी अमर के लिए भी बना दी जाय। काकी अमर की झोंपड़ी में रहेगी। एक किनारे गाय-बैल बंध लेगी। एक किनारे पडे। रहेंगी।
आज सलोनी जितनी खुश है, उतनी शायद और कभी न हुई हो। वही बुढ़िया, जिसके द्वार पर कोई बैल बंध देता, तो लड़ने को तैयार हो जाती, जो बच्चों को अपने द्वार पर गोलियां न खेलने देती, आज अपने पुरखों का घर देकर अपना जीवन सफल समझ रही है। यह कुछ असंगत-सी बात है पर दान कृपण ही दे सकता है । हां, दान का हेतु ऐसा होना चाहिए जो उसकी नजर में उसके मर-मर संचे हुए धन के योग्य हो।
चटपट काम शुरू हो जाता है। घरों से लकड़ियां निकल आईं, रस्सी निकल आई, मजूर निकल आए, पैसे निकल आए। न किसी से कहना पड़ा, न सुनना। वह उनकी अपनी शाला थी। उन्हीं के लड़के-लड़कियां तो पढ़ती थीं। और इन छ:-सात महीने में ही उन पर शिक्षा का कुछ असर भी दिखाई देने लगा था। वह अब साफ रहते हैं, झूठ कम बोलते हैं, झूठे बहाने कम करते हैं, गालियां कम बकते हैं, और घर से कोई चीज़ चुरा कर नहीं ले जाते। न उतनी ज़िद ही करते हैं। घर का जो कुछ काम होता है, उसे शौक से करते हैं। ऐसी शाला की कौन मदद न करेगा-
फागुन का शीतल प्रभात सुनहरे वस्त्र पहने पहाड़ पर खेल रहा था। अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया। यह बात क्या है- और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे। आज इतनी देर हो गई और किसी का पता नहीं।
सहसा मुन्नी सिर पर कलसा रखे आकर खड़ी हो गई। वही शीतल, सुनहरा प्रभात उसके गेहुएं मुखड़े पर मचल रहा था।
अमर ने मुस्कराकर कहा-यह देखो, सूरज देवता तुम्हें घूर रहे हैं।
मुन्नी ने कलसा उतारकर हाथ में ले लिया और बोली-और तुम बैठे देख रहे हो-
फिर एक क्षण के बाद उसने कहा-तुम तो जैसे आजकल गांव में रहते ही नहीं हो। मदरसा क्या बनने लगा, तुम्हारे दर्शन ही दुर्लभ हो गए। मैं डरती हूं, कहीं तुम सनक न जाओ।
'मैं तो दिन-भर यहीं रहता हूं, तुम अलबत्ता जाने कहां रहती हो- आज यह सब आदमी कहां चले गए- एक भी नहीं आया।'
'गांव में है ही कौन?'
'कहां चले गए सब?'
'वाह तुम्हें खबर ही नहीं- पहर रात सिरोमनपुर के ठाकुर की गाय मर गई, सब लोग वहीं गए हैं। आज घर-घर सिकार बनेगा।'
'अमर ने घृणा-सूचक भाव से कहा-मरी गाय?'
'हमारे यहां भी तो खाते हैं, यह लोग।'
'क्या जाने- मैंने कभी नहीं देखा। तुम तो...'
मुन्नी ने घृणा से मुंह बनाकर कहा-मैं तो उधर ताकती भी नहीं।
'समझाती नहीं इन लोगों को?'
'उंह समझाने से माने जाते हैं, और मेरे समझाने से।'
अमरकान्त की वंशगत वैष्णव वृत्ति इस घृणित, पिशाच कर्म से जैसे मतलाने लगी। उसे सचमुच मतली हो आई। उसने छूत-छात और भेदभाव को मन से निकाल डाला था पर अखा? से वही पुरानी घृणा बनी हुई थी। और वह दस-ग्यारह महीने से इन्हीं मुरदाखोरों के घर भोजन कर रहा है।
'आज मैं खाना नहीं खाऊंगा, मुन्नी ।'
'मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूंगी।'
'नहीं मुन्नी जिस घर में वह चीज़ पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायेगा।'
सहसा शोर सुनकर अमर ने आंखें उठाईं, तो देखा कि पंद्रह-बीस आदमी बांस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे हैं। सामने कई लड़के उछलते-कूदते तालियां बजाते चले आते थे।
कितना बीभत्स दृश्य था। अमर वहां खड़ा न रह सका। गंगा-तट की ओर भागा।
मुन्नी ने कहा-तो भाग जाने से क्या होगा- अगर बुरा लगता है तो जाकर समझाओ।
'मेरी बात कौन सुनेगा, मुन्नी?'
'तुम्हारी बात न सुनेंगे, तो और किसकी बात सुनेंगे, लाला?'
'और जो किसी ने न माना?'
'और जो मान गए आओ, कुछ-कुछ बद लो।'
'अच्छा क्या बदती हो?'
'मान जायें तो मुझे एक अच्छी-सी साड़ी ला देना।'
'और न माने, तो तुम मुझे क्या दोगी?'
'एक कौड़ी।'
इतनी देर में वह लोग और समीप आ गए। चौधरी सेनापति की भांति आगे-आगे लपके चले आते थे।
मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा-ला तो रहे हो लेकिन लाला भागे जा रहे हैं।
गूदड़ ने कौतूहल से पूछा-क्यों क्या हुआ है-
'यही गाय की बात है। कहते हैं, मैं तुम लोगों के हाथ का पानी न पिऊंगा।'
पयाग ने अकड़कर कहा-बकने दो। न पिएंगे हमारे हाथ का पानी, तो हम छोटे न हो जाएंगे।
काशी बोला-आज बहुत दिनों के बाद सिकार मिला उसमें भी यह बाधा॥
गूदड़ ने समझौते के भाव से कहा-आखिर कहते क्या हैं-
मुन्नी झुंझलाकर बोली-अब उन्हीं से जाकर पूछो। जो चीज़ और किसी ऊंची जात वाले नहीं खाते, उसे हम क्यों खाएं, इसी से तो लोग हमें नीच समझते हैं।
पयाग ने आवेश में कहा-तो हम कौन किसी बाम्हन-ठाकुर के घर बेटी ब्याहने जाते हैं- बाम्हनों की तरह किसी के द्वार पर भीख मांगने तो नहीं जाते यह तो अपना-अपना रिवाज है।
मुन्नी ने डांट बताई-यह कोई अच्छी बात है कि सब लोग हमें नीच समझें, जीभ के सवाद के लिए-
गाय वहीं रख दी गई। दो-तीन आदमी गंडासे लेने दौड़े। अमर खड़ा देख रहा था कि मुन्नी मना कर रही है पर कोई उसकी सुन नहीं रहा। उसने उधर से मुंह फेर लिया जैसे उसे कै हो जाएगी। मुंह फेर लेने पर भी वही दृश्य उसकी आंखों में फिरने लगा। इस सत्य को वह कैसे भूल जाय कि उससे पचास क़दम पर मुरदा गाय की बोटियां की जा रही हैं। वह उठकर गंगा की ओर भागा।
गूदड़ ने उसे गंगा की ओर जाते देखकर चिंतित भाव से कहा-वह तो सचमुच गंगा की ओर भागे जा रहे हैं। बड़ा सनकी आदमी है। कहीं डूब-डाब न जाय।
पयाग बोला-तुम अपना काम करो, कोई नहीं डूबे-डाबेगा। किसी को जान इतनी भारी नहीं होती।
मुन्नी ने उसकी ओर कोप-दृष्टि से देखा-जान उन्हें प्यारी होती है, जो नीच हैं और नीच बने रहना चाहते हैं। जिसमें लाज है, जो किसी के सामने सिर नहीं नीचा करना चाहता, वह ऐसी बात पर जान भी दे सकता है।
पयाग ने ताना मारा-उनका बड़ा पच्छ कर रही हो भाभी, क्या सगाई की ठहर गई है-
मुन्नी ने आहत कंठ से कहा-दादा, तुम सुन रहे हो इनकी बातें, और मुंह नहीं खोलते। उनसे सगाई ही कर लूंगी, तो क्या तुम्हारी हंसी हो जाएगी- और जब मेरे मन में वह बात आ जाएगी, तो कोई रोक भी न सकेगा। अब इसी बात पर मैं देखती हूं कि कैसे घर में सिकार जाता है। पहले मेरी गर्दन पर गंडासा चलेगा।
मुन्नी बीच में घुसकर गाय के पास बैठ गई और ललकार बोली-अब जिसे गंडासा चलाना हो चलाए, बैठी हूं।
पयाग ने कातर भाव से कहा-हत्या के बल खेलती-खाती हो और क्या ।
मुन्नी बोली-तुम्हीं जैसों ने बिरादरी को इतना बदनाम कर दिया है उस पर कोई समझाता है, तो लड़ने को तैयार होते हो।
गूदड़ चौधरी गहरे विचार में डूबे खड़े थे। दुनिया में हवा किस तरफ चल रही है, इसकी भी उन्हें कुछ खबर थी। कई बार इस विषय पर अमरकान्त से बातचीत कर चुके थे। गंभीर भाव से बोले-भाइयो, यहां गांव के सब आदमी जमा हैं। बताओ, अब क्या सलाह है-
एक चौड़ी छाती वाला युवक बोला-सलाह जो तुम्हारी है, वही सबकी है। चौधरी तो तुम हो।
पयाग ने अपने बाप को विचलित होते देख, दूसरों को ललकारकर कहा-खड़े मुंह क्या ताकते हो, इतने जने तो हो। क्यों नहीं मुन्नी का हाथ पकड़कर हटा देते- मैं गंडासा लिए खड़ा हूं।
मुन्नी ने क्रोध से कहा-मेरा ही मांस खा जाओगे, तो कौन हर्ज है- वह भी तो मांस ही है।
और किसी को आगे बढ़ते न देखकर पयाग ने खुद आगे बढ़कर मुन्नी का हाथ पकड़ लिया और उसे वहां से घसीटना चाहता था कि काशी ने उसे ज़ोर से धक्का दिया और लाल आंखें करके बोला-भैया, अगर उसकी देह पर हाथ रखा, तो खून हो जाएगा-कहे देता हूं। हमारे घर में इस गऊ मांस की गंध तक न जाने पाएगी। आए वहां से बड़े वीर बनकर ।
चौड़ी छाती वाला युवक मधयस्थ बनकर बोला-मरी गाय के मांस में ऐसा कौन-सा मजा रखा है, जिसके लिए सब जने मरे जा रहे हो। गङ्ढा खोदकर मांस फाड़ दो, खाल निकाल लो। वह भी जब अमर भैया की सलाह हो तो। सारी दुनिया हमें इसीलिए तो अछूत समझती है कि हम दारू-सराब पीते हैं, मुरदा मांस खाते हैं और चमड़े का काम करते हैं। और हममें क्या बुराई है- दारू-सराब हमने छोड़ दी है- रहा चमड़े का काम, उसे कोई बुरा नहीं कह सकता, और अगर कहे भी तो हमें उसकी परवाह नहीं। चमड़ा बनाना-बेचना कोई बुरा काम नहीं है।
गूदड़ ने युवक की ओर आदर की दृष्टि से देखा-तुम लोगों ने भूरे की बात सुन ली। तो यही सबकी सलाह है-
भूरे बोला-अगर किसी को उजर करना हो तो करे।
एक बूढ़े ने कहा-एक तुम्हारे या हमारे छोड़ देने से क्या होता है- सारी बिरादरी तो खाती है।
भूरे ने जवाब दिया-बिरादरी खाती है, बिरादरी नीच बनी रहे । अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है।
गूदड़ ने भूरे को संबोधित किया-तुम ठीक कहते हो, भूरे लड़कों का पढ़ना ही ले लो। पहले कोई भेजता था अपने लड़कों को - मगर जब हमारे लड़के पढ़ने लगे, तो दूसरे गांवों के लड़के भी आ गए।
काशी बोला-मुरदा मांस न खाने के अपराध का दंड बिरादरी हमें न देगी। इसका मैं जुम्मा लेता हूं। देख लेना आज की बात सांझ तक चारों ओर फैल जाएगी, और वह लोग भी यही करेंगे। अमर भैया का कितना मान है। किसकी मजाल है कि उनकी बात को काट दे।
पयाग ने देखा, अब दाल न गलेगी, तो सबको धिक्कारकर बोला-अब मेहरियों का राज है, मेहरियां जो कुछ न करें वह थोड़ा।
यह कहता हुआ वह गंडासा लिए घर चला गया।
गूदड़ लपके हुए गंगा की ओर चले और एक गोली के टप्पे से पुकारकर बोले-यहां क्यों खड़े हो भैया, चलो घर, सब झगड़ा तय हो गया।
अमर विचार-मग्न था। आवाज़ उसके कानों तक न पहुंची।
चौधरी ने और समीप जाकर कहा-यहां कब तक खड़े रहोगे भैया-
'नहीं दादा, मुझे यहीं रहने दो। तुम लोग वहां काट-कूट करोगे, मुझसे देखा न जाएगा। जब तुम फुर्सत पा जाओगे, तो मैं आ जाऊंगा।'
'बहू कहती थी, तुम हमारे घर खाने को भी नाहीं कहते हो?'
'हां दादा, आज तो न खाऊंगा, मुझे कै हो जाएगी।'
'लेकिन हमारे यहां तो आए दिन यही धंधा लगा रहता है।'
'दो-चार दिन के बाद मेरी भी आदत पड़ जाएगी।'
'तुम हमें मन में राक्षस समझ रहे होगे?'
अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नहीं दादा, मैं तो तुम लोगों से कुछ सीखने, तुम्हारी कुछ सेवा करके अपना उधार करने आया हूं। यह तो अपनी-अपनी प्रथा है। चीन एक बहुत बड़ा देश है। वहां बहुत से आदमी बुध्द भगवान् को मानते हैं। उनके धर्म में किसी जानवर को मारना पाप है। इसलिए वह लोग मरे हुए जानवर ही खाते हैं। कुत्तो, बिल्ली, गीदड़ किसी को भी नहीं छोड़ते। तो क्या वह हमसे नीच हैं- कभी नहीं। हमारे ही देश में कितने ही ब्राह्यण, क्षत्री मांस खाते हैं- वह जीभ के स्वाद के लिए जीव-हत्या करते हैं। तुम उनसे तो कहीं अच्छे हो।
गूदड़ ने हंसकर कहा-भैया, तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुमसे कोई न जीतेगा चलो, अब कोई मुरदा नहीं खाएगा। हम लोगों ने तय कर लिया। हमने क्या तय किया, बहू ने तय किया। मगर खाल तो न फेंकनी होगी-
अमर ने प्रसन्न होकर कहा-नहीं दादा, खाल क्यों फेंकोगे- जूते बनाना तो सबसे बड़ी सेवा है। मगर क्या भाभी बहुत बिगड़ी थीं-
गूदड़ बोला-बिगड़ी ही नहीं थी भैया, वह तो जान देने को तैयार थी। गाय के पास बैठ गई और बोली-अब चलाओ गंडासा, पहला गंडासा मेरी गर्दन पर होगा फिर किसकी हिम्मत थी कि गंडासा चलाता।
अमर का हृदय जैसे एक छलांग मारकर मुन्नी के चरणों पर लोटने लगा।