कर्मभूमि उपन्यास भाग-4 अध्याय-7: Difference between revisions

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'मगर नजात के पहले कयामत आएगी, यह भी याद रहे।'
'मगर नजात के पहले कयामत आएगी, यह भी याद रहे।'


'हमारे लिए यह अंधेर ही कयामत है जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहां - उस पर भी हम आठ आने पर राजी थे। मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आखिर सरकार किफायत क्यों नहीं करती- पुलिस और फ़ौज और इंतजाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाए जाते हैं- किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमजोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?'
'हमारे लिए यह अंधेर ही कयामत है जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहां - उस पर भी हम आठ आने पर राजी थे। मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आखिर सरकार किफायत क्यों नहीं करती- पुलिस और फ़ौज और इंतजाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाए जाते हैं- किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमज़ोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?'


सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा-तो नतीजा क्या होगा, जानते हो- गांव-के-गांव बर्बाद हो जाएंगे, फ़ौजी कानून जारी हो जाएगा, शायद पुलिस बैठा दी जाएगी, फसलें नीलाम कर दी जाएंगी, ज़मीनें जब्त हो जाएंगी। कयामत का सामना होगा?'
सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा-तो नतीजा क्या होगा, जानते हो- गांव-के-गांव बर्बाद हो जाएंगे, फ़ौजी कानून जारी हो जाएगा, शायद पुलिस बैठा दी जाएगी, फसलें नीलाम कर दी जाएंगी, ज़मीनें जब्त हो जाएंगी। कयामत का सामना होगा?'

Revision as of 13:00, 14 May 2013

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आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाए उनका आशीर्वाद बटोर रही थी।

इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोनों दो दिशाओं से मदरसे में आए।

अमरकान्त ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा-हम लोगों ने कितना अच्छा प्रोग्राम बनाया था कि एक साथ लौटे। एक क्षण भी विलंब न हुआ। कुछ खा-पीकर फिर निकलें और आठ बजते-बजते लौट आएं।

आत्मानन्द ने भूमि पर लेटकर कहा-भैया, अभी तो मुझसे एक पग न चला जाएगा। हां, प्राण लेना चाहो, तो ले लो। भागते-भागते कचूमर निकल गया। पहले शर्बत बनवाओ, पीकर ठंडे हों, तो आंखें खुलें।

'तो फिर आज का काम समाप्त हो चुका?'

'हो या भाड़ में जाय, क्या प्राण दे दें- तुमसे हो सकता है करो, मुझसे तो नहीं हो सकता।'

अमर ने मुस्कराकर कहा-यार मुझसे दूने तो हो, फिर भी चें बोल गए। मुझे अपना बल और अपना पाचन दे दो, फिर देखो, मैं क्या करता हूं-

आत्मानन्द ने सोचा था, उनकी पीठ ठोंकी जाएगी, यहां उनके पौरूष पर आक्षेप हुआ। बोले-तुम मरना चाहते हो, मैं जीना चाहता हूं।

'जीने का उद्देश्य तो कर्म है।'

'हां, मेरे जीवन का उद्देश्य कर्म ही है। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तो अकाल मृत्यु है।'

'अच्छा शर्बत पिलवाता हूं, उसमें दही भी डलवा दूं?'

'हां, दही की मात्रा अधिक हो और दो लोटे से कम न हो। इसके दो घंटे बाद भोजन चाहिए।'

'मार डाला तब तक तो दिन ही गायब हो जाएगा।'

अमर ने मुन्नी को बुलाकर शर्बत बनाने को कहा और स्वामीजी के बराबर ही ज़मीन पर लेटकर पूछा-इलाके की क्या हालत है-

'मुझे तो भय हो रहा है, कि लोग धोखा देंगे। बेदख़ली शुरू हुई, तो बहुतों के आसन डोल जाएंगे ।'

'तुम तो दार्शनिक न थे, यह घी पत्तो पर या पत्ता घी पर की शंका कहां से लाए?'

'ऐसा काम ही क्यों किया जाय, जिसका अंत लज्जा और अपमान हो- मैं तुमसे सत्य कहता हूं, मुझे बड़ी निराशा हुई।'

'इसका अर्थ यह है कि आप इस आंदोलन के नायक बनने के योग्य नहीं हैं। नेता में आत्मविश्वास, साहस और धैर्य, ये मुख्य लक्षण हैं।'

मुन्नी शर्बत बनाकर लाई। आत्मानन्द ने कमंडल भर लिया और एक सांस में चढ़ा गए। अमरकान्त एक कटोरे से ज्यादा न पी सके।

आत्मानन्द ने मुंह छिपाकर कहा-बस फिर भी आप अपने को मनुष्य कहते हैं-

अमर ने जवाब दिया-बहुत खाना पशुओं का काम है।

'जो खा नहीं सकता वह काम क्या करेगा?'

'नहीं, जो कम खाता है, वही काम कर सकता है। पेटू के लिए सबसे बड़ा काम भोजन पचाना है।'

सलोनी कल से बीमार थी। अमर उसे देखने चला था कि मदरसे के सामने ही मोटर आते देखकर रूक गया। शायद इस गांव में मोटर पहली बार आई हो। वह सोच रहा था, किसकी मोटर है कि सलीम उसमें से उतर पड़ा। अमर ने लपककर हाथ मिलाया-कोई जरूरी काम था, मुझे क्यों न बुला लिया-

दोनों आदमी मदरसे में आए। अमर ने एक खाट लाकर डाल दी और बोला-तुम्हारी क्या खातिर करूं- यहां तो कमंडल की हालत है। शर्बत बनवाऊं-

सलीम ने सिगार जलाते हुए कहा-नहीं, कोई तकल्लुफ नहीं। मि. गजनवी तुमसे किसी मुआमले में सलाह करना चाहते हैं। मैं आज ही जा रहा हूं। सोचा, तुम्हें भी लेता चलूं। तुमने तो कल आग लगा ही दी। अब तहकीकात से क्या फायदा होगा- वह तो बेकार हो गई।

अमर ने कुछ झिझकते हुए कहा-महन्तजी ने मजबूर कर दिया। क्या करता-

सलीम ने दोस्ती की आड़ ली-मगर इतना तो सोचते कि यह मेरा इलाका है और यहां की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। मैंने सड़क के किनारे अक्सर गांवों मैनें लोगों के जमाव देखे। कहीं-कहीं तो मेरी मोटर पर पत्थर भी फेंके गए। यह अच्छे आसार नहीं हैं। मुझे खौफ है, कोई हंगामा न हो जाय। अपने हक के लिए या बेजा जुल्म के ख़िलाफ़ रिआया में जोश हो, तो मैं इसे बुरा नहीं समझता, लेकिन यह लोग कायदे-कानून के अंदर रहेंगे, मुझे इसमें शक है। तुमने गूंगों को आवाज़ दी, सोतों को जगाया लेकिन ऐसी तहरीक के लिए जितने जब्त और सब्र की जरूरत है, उसका दसवां भी हिस्सा मुझे नजर नहीं आता।

अमर को इस कथन में शासन-पक्ष की गंध आई। बोला-तुम्हें यकीन है कि तुम भी वह ग़लती नहीं कर रहे, जो हुक्कम किया करते हैं- जिनकी जिंदगी आराम और फरागत से गुजर रही है, उनके लिए सब्र और जब्त की हांक लगाना आसान है लेकिन जिनकी जिंदगी का हरेक दिन एक नई मुसीबत है, वह नजात को अपनी जनवासी चाल से आने का इंतजार नहीं कर सकते। यह उसे खींच लाना चाहते हैं, और जल्द-से-जल्द।

'मगर नजात के पहले कयामत आएगी, यह भी याद रहे।'

'हमारे लिए यह अंधेर ही कयामत है जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहां - उस पर भी हम आठ आने पर राजी थे। मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आखिर सरकार किफायत क्यों नहीं करती- पुलिस और फ़ौज और इंतजाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाए जाते हैं- किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमज़ोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?'

सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा-तो नतीजा क्या होगा, जानते हो- गांव-के-गांव बर्बाद हो जाएंगे, फ़ौजी कानून जारी हो जाएगा, शायद पुलिस बैठा दी जाएगी, फसलें नीलाम कर दी जाएंगी, ज़मीनें जब्त हो जाएंगी। कयामत का सामना होगा?'

अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा-जो कुछ भी हो, मर-मिटना जुल्म के सामने सिर झुकाने से अच्छा है।

मदरसे के सामने हुजूम बढ़ता जाता था-सलीम ने विवाद का अंत करने के लिए कहा-चलो इस मुआमले पर रास्ते में बहस करेंगे। देर हो रही है।

अमर ने चटपट कुरता गले में डाला और आत्मानन्द से दो-चार जरूरी बातें करके आ गया। दोनों आदमी आकर मोटर पर बैठे। मोटर चली, तो सलीम की आंखों में आंसू डबडबाए हुए थे। अमर ने सशंक होकर पूछा-मेरे साथ दगा तो नहीं कर रहे हो-

सलीम अमर के गले लिपटकर बोला-इसके सिवा और दूसरा रास्ता न था। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें पुलिस के हाथों जलील किया जाय।

'तो जरा ठहरो, मैं अपनी कुछ जरूरी चीज़ें तो ले लूं।'

'हां-हां, ले लो, लेकिन राज खुल गया, तो यहां मेरी लाश नजर आएगी।'

'तो चलो कोई मुजायका नहीं।'

गांव के बाहर निकले ही थे कि मुन्नी आती हुई दिखाई दी। अमर ने मोटर रूकवाकर पूछा-तुम कहां गई थीं, मुन्नी- धाोबी से मेरे कपड़े लेकर रख लेना, सलोनी काकी के लिए मेरी कोठरी में ताक पर दवा रखी है। पिला देना।

मुन्नी ने सहमी हुई आंखों से देखकर कहा-तुम कहां जाते हो-

'एक दोस्त के यहां दावत खाने जा रहा हूं।'

मोटर चली। मुन्नी ने पूछा-कब तक आओगे-

अमर ने सिर निकालकर उससे दोनों हाथ जोड़कर कहा-जब भाग्य लाए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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