रामविलास शर्मा: Difference between revisions

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रामविलास शर्मा
पूरा नाम रामविलास शर्मा
जन्म 10 अक्टूबर, 1912
जन्म भूमि उन्नाव ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 30 मई, 2000
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र आलोचक, निबंधकार, विचारक
मुख्य रचनाएँ 'प्रेमचन्द और उनका युग', 'भाषा साहित्य और संस्कृति', 'प्रगति और परम्परा', 'भाषा और समाज', 'निराला की साहित्य साधना'
भाषा हिंदी और अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि शलाका सम्मान
विशेष योगदान इन्होंने अपने उग्र और उत्तेजनापूर्ण निबन्धों से हिन्दी समीक्षा को एक गति प्रदान की है।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 'अज्ञेय' द्वारा सम्पादित 'तारसप्तक' (1943 ई.) के एक कवि रूप में इनकी रचनाएँ काफ़ी चर्चित हुई हैं।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

डॉ. रामविलास शर्मा (जन्म- 10 अक्टूबर, 1912, उन्नाव ज़िला, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 30 मई, 2000, भारत) आधुनिक हिन्दी साहित्य में सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि थे।

जीवन परिचय

रामविलास शर्मा हिन्दी में प्रगतिवादी समीक्षा-पद्धति के एक प्रमुख स्तम्भ थे। रामविलास शर्मा का जन्म 10 अक्टूबर, 1912 ई. में उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले में उच्चगाँव सानी में हुआ था। सन् 1971 ई. में इन्होंने कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिन्दी विद्यापीठ में अध्यापन प्रारम्भ किया। इसके पूर्व आगरा के ही बलवंत राजपूत कॉलेज में शर्मा जी अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे। इन्होंने अपने उग्र और उत्तेजनापूर्ण निबन्धों से हिन्दी समीक्षा को एक गति प्रदान की है। इन्होंने सम्पूर्ण साहित्य नये और पुराने को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखने-परखने का प्रस्ताव बड़ी क्षमता के साथ किया है। शर्मा जी ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों समीक्षा-पद्धतियों से अपने विचारों को पुष्ट करने का यत्न किया है। 'समालोचक' नामक एक पत्र भी इनका प्रकाशित हुआ।

साहित्यिक परिचय

डॉ रामविलास शर्मा का लेखन काफ़ी हद तक ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त है। इन्होंने इतिहास को समझने की जो दृष्टि दी, वह अल्पसंख्यक, दलित और स्त्री के नजरिए से तो इतिहास को परखती ही है, साथ ही साम्राज्यवादी यूरो-केंद्रित इतिहास-दृष्टि का खंडन भी करती है। रामविलास जी इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि पता नहीं कैसे लोग औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास पर विश्वास करते हैं? इसके लिए वे अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखते हैं, “अग्रेजी राज ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को मिटाया, हिंदुस्तानियों से एक रुपए ऐंठा तो उसमें से छदाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार अंग्रेज़ों पर बलि-बलि जाते हैं।"[1]
रामविलास जी अंग्रेज़ों को उस हद तक प्रगतिशील भी नहीं मानते, जितना अन्य विद्वान मानते हैं। अंग्रेज़ों की प्रगतिशील भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगते हुए ये लिखते हैं कि “अंग्रेज़ उदारपंथियों के आदर्श प्रजातंत्र संयुक्त राज्य अमरीका में गुलामों से खेती कराके बड़ी-बड़ी रियासतें कायम की गई थीं। गुलामों के व्यापार से लाभ उठानेवालों में अंग्रेज़ सौदागर सबसे आगे थे। यह गुलामी प्रथा न तो पूँजीवादी थी, न सामंती थी; समाजशास्त्र के पंडित उसे सामंतवाद से भी पिछड़ी हुई प्रथा मानते हैं । इस प्रथा का विकास और प्रसार करके अंग्रेज़ सौदागरों ने कौन-सा प्रगतिशील काम किया कहना कठिन है।"[2]स्पष्ट है कि रामविलास जी अंग्रेज़ों की प्रगतिशील भूमिका का मूल्यांकन तथ्यों की कसौटी पर करते हैं, इसीलिए वे उन्हें उतने प्रगतिशील नहीं लगते जितने अन्य विद्वानों को लगते हैं । शायद इसी कारण से डॉ रामविलास शर्मा अंग्रज़ों की प्रगतिशील भूमिका का समर्थन करने के बजाय अपने लेखन में उन भारतीय तत्वों को उभारने का प्रयास करते हैं जो अंग्रज़ों से भिन्न और कहीं अधिक प्रगतिशील थे।[3]

सुप्रसिद्ध आलोचक

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है। इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा हो। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। वे लिखते हैं - ‘‘दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है।"[4]

कृतियाँ

रामविलासजी निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। अपनी सुदीर्घ लेखन यात्रा में उन्होंने लगभग 100 महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन किया, जिनमें ‘गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’, ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’, ‘निराला की साहित्य साधना’, ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण’, ‘पश्चिमी एशिया और ऋग्‍वेद’, ‘भारत में अँग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद’, ‘भारतीय साहित्य और हिन्दी जाति के साहित्य की अवधारणा’, ‘भारतेंदु युग’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ जैसी कालजयी रचनाएँ शामिल हैं।[4]

रामविलास शर्मा जी की समीक्षा कृतियों में विशेष उल्लेखनीय हैं-
  • 'प्रेमचन्द और उनका युग' (1953)
  • 'निराला' (1946 ई.)
  • 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' (1954 ई.)
  • 'प्रगति और परम्परा' (1954 ई.)
  • 'भाषा साहित्य और संस्कृति' (1954 ई.)
  • 'भाषा और समाज' (1961 ई.)
  • 'निराला की साहित्य साधना' (1969)

रामविलास शर्मा ने यद्यपि कविताएँ अधिक नहीं लिखीं, पर हिन्दी के प्रयोगवादी काव्य-आन्दोलन के साथ वे घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहे हैं। 'अज्ञेय' द्वारा सम्पादित 'तारसप्तक' (1943 ई.) के एक कवि रूप में इनकी रचनाएँ काफ़ी चर्चित हुई हैं। रूप तरंग तथा सदियों के सोये जाग उठे आदि उनकी कविता संग्रह हैं। चार दिन उनके लिखे उपन्यासों, अपनी धरती अपने लोग व घर की बात आत्मकथात्मक रचनाओं तथा आस्था और सौन्दर्य व विराम चिह्न उनके निबंध साहित्य के चुने हुए उदाहरण हैं।

सम्मान

रामविलास शर्मा जी वर्ष 1986-87 में हिन्दी अकादमी के प्रथम सर्वोच्च सम्मान शलाका सम्मान से सम्मानित साहित्यकार हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (सन सत्तावन की राज्य क्रांति और मार्क्सवाद, पृ. 67)
  2. (सन सत्तावन की राज्यक्रांति और मार्क्सवाद, पृ. 53)
  3. रामविलास शर्मा का प्रतिऔपनिवेशिक चिंतन (हिंदी) हिंदी समय डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 30 मई, 2013।
  4. 4.0 4.1 डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिद्धांत (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 30 मई, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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