भारत का इतिहास
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भारत में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न अब तक मिले हैं, वे 4,00,000 ई. पू. और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के संधिकाल के हैं और वे इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि उस समय पत्थर के उपकरण काम में लाए जाते थे। इसके पश्चात एक लम्बे अरसे तक विकास मन्द गति से होता रहा, जिसमें अन्तिम समय में जाकर तीव्रता आई और उसकी परिणति 2300 ई. पू. के लगभग सिन्धु घाटी की आलीशान सभ्यता (अथवा नवीनतम नामकरण के अनुसार हड़प्पा संस्कृति) के रूप में हुई। हड़प्पा की पूर्ववर्ती संस्कृतियाँ हैं: बलूचिस्तानी पहाड़ियों के गाँवों की कुल्ली संस्कृति और राजस्थान तथा पंजाब की नदियों के किनारे बसे कुछ ग्राम-समुदायों की संस्कृति।[1] जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। जिसका आधार अफ़्रीका के प्राचीन मानव से जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) का मिलना है। [2] यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
भारतीय इतिहास जानने के स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-
- साहित्यिक साक्ष्य
- विदेशी यात्रियों का विवरण
- पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।
- धार्मिक साहित्य
धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।
- ब्राह्मण ग्रन्थों में -
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रन्थ आते हैं।
- लौकिक साहित्य
लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।
धर्म-ग्रन्थ
प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।
ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ
ब्राह्मण धर्म - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।
वेद
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वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरूषेय अर्थात दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-
- ऋग्वेद- यह ऋचाओं का संग्रह है।
- सामवेद- यह ऋचाओं का संग्रह है।
- यजुर्वेद- इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है।
- अथर्ववेद- यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।
ग्रंथों की प्रकृति
- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, इन चारों वेदों को 'संहिता' कहा जाता है।
- इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के सम्मिलित संग्रह को 'वेदत्रयी' कहा जाता है।
- उपर्युक्त चारों वेदों में से प्रत्येक के एक-एक उपवेद भी है।
- ऋग्वेद का उपवेद 'आयुर्वेद' है, सामवेद का उपवेद 'गन्धर्ववेद' है, जो संगीत से संबद्व है।
- यजुर्वेद का उपवेद 'धनुर्वेद' है, जो युद्व कलाओं का वर्णन करता है।
- अथर्ववेद का उपवेद 'शिल्पवेद' है।
- इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपवेद है 'आयुर्वेद' है।
- इसके आठ भाग हैं- शल्य, शालक्य, काय-चिकित्सा, भूत विद्या, कुमारभृत्य, अंगदतन्त्र, रसायन और वाजीकरण।
- एक मान्यता के अनुसार आयुर्वेद के जन्मदाता प्रजापति (ब्रह्मा), धनुर्वेद के जन्मदाता विश्वामित्र, गन्धर्व के जन्मदाता नारद तथा शिल्पवेद के जन्मदाता विश्वकर्मा थे।
- इन ग्रन्थों से प्राचीन भारत में प्रचलित विभिन्न विधाओं का ज्ञान होता है।
ब्राह्मण ग्रंथ
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यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं।
आरण्यक
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आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।
उपनिषद
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उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है। ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य में हैं तथा केन, ईश, कठ और श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में हैं।
वेदांग
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वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
1- शिक्षा, 2- कल्प, 3- व्याकरण, 4- निरूक्त, 5- छन्द एवं 6- ज्योतिष
ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
- धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध ।
आर्यों के आदि स्थल सूची
आर्यों के आदि स्थल | हड़प्पाकालीन नदियों के किनारे बसे नगर | विभिन्न विद्वानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण | |||
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आदि (मूल) स्थान | मत | नगर | नदी / सागर तट | काल | विद्वान |
स्मृतियाँ
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स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नारद स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।
महाकाव्य
[[चित्र:Valmiki-Ramayan.jpg|thumb|120px|महर्षि वाल्मीकि रामायण लिखते हुए]] 'रामायण' एवं 'महाभारत', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।
रामायण
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रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।
महाभारत
[[चित्र:Krishna-arjun1.jpg|thumb|150px|कृष्ण और अर्जुन]]
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महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' केहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेघ, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
महाजनपद सूची
नाम | विवरण | क्षेत्र |
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पुराण
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प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्म वैवर्त पुराण, 11. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16. मत्स्य पुराण 17. गरुड़ पुराण और 18. ब्रह्माण्ड पुराण इन पुराणों में विष्णु, मत्स्य, वायु, ब्रह्माण्ड, तथा भागवत पुराण सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्त्व के हैं क्योंकि इनमें राजाओं की वंशावलियां पायी जाती हैं। अठारह पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक मत्स्य पुराण है। इसके द्वारा सातवाहन वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण से मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की एवं वायु पुराण से शुंग वंश एवं गुप्त वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इस प्रकार पुराणों से हमें शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन एवं गुप्त वंश के विषय में ज्ञान होता है। मार्कण्डेय पुराण मुख्यतः देवी दुर्गा से संबधित है। इसी में 'दुर्गा सप्तशती' नामक अंश शामिल है। अग्नि पुराण में तांत्रिक पद्धति का उल्लेख है। इसी पुराण में गणेश पूजा का प्रथम बार उल्लेख मिलता है।
बौद्ध साहित्य
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बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक।
जैन साहित्य
[[चित्र:Mahaveer.jpg|महावीर|thumb|100px]]
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ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।
लौकिक साहित्य
[[चित्र:Poet-Kalidasa.jpg|thumb|100px|कालिदास]] इस प्रकार के साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य आते हैं, ऐसे साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य भी कहते हैं इस प्रकार की कृतियों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफ़ी मदद मिलती है। ऐसी रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का किया जाता है। व्याकरण के पितामह आचार्य पाणिनि का अष्टाध्यायी, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, महर्षि पतंजलि का महाभाष्य, कालिदास का मालविकाग्निमित्रम्, बाणभट्ट का हर्षचरित, भास का स्वप्नवासवदत्तम, शूद्रक मृच्छकटिकम, कल्हण का राजतरंगिणी आदि साहित्य से विभिन्न ऐतिहासिक जनकारी मिलती है।
- दक्षिण भारत का प्रारम्भिक इतिहास ‘संगम साहित्य‘ से ज्ञात होता है।
- सुदूर दक्षिण के पल्लव और चोल शासको का इतिहास नन्दिकक्लम्बकम, कलिंगत्तुपर्णि, चोल चरित आदि से प्राप्त होता है।
विदेशियों के विवरण
विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारियाँ मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-
[[चित्र:Demetrius.jpg|thumb|चित्रकार द्वारा डिमेट्रियस का सिक्के से बनाया हुआ चित्र]]
यूनानी-रोमन लेखक, चीनी लेखक और अरबी लेखक
यूनानी-रोमन लेखक
- यूनानी लेखकों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
- टेसियस और हेरोडोटस यूनान और रोम के प्राचीन लेखकों में से हैं। टेसियस 'ईरानी राजवैद्य' था, उसने भारत के विषय में समस्त जानकारी ईरानी अधिकारियों से प्राप्त की थी। हेरोडोटस, जिसे 'इतिहास का पिता' कहा जाता है, ने 5वी. शताब्दी में ई.पू. में ‘हिस्टोरिका‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें भारत और फ़ारस के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।
- नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोवुलास ये सभी लेखक सिकन्दर के समकालीन। इन लेखकों द्वारा जो भी विवरण तत्कालीन भारतीय इतिहास से जुड़ा है वह अपने में प्रमाणिक है।
- सिकन्दर के बाद के लेखकों में महत्त्वपूर्ण था मेगस्थनीज जो यूनानी राजा सेल्यूकस का राजदूत था। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में क़रीब 14 वर्षो तक समय व्यतीत किया। उसने ‘इण्डिका ‘ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें तत्कालीन मौर्यवंशीय समाज एवं संस्कृति का विवरण दिया था। डाइमेकस, सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था जो बिन्दुसार के राजदरबार में काफ़ी दिनों तक रहा। डायोनिसियस मिस्र नरेश 'टॉलमी फिलाडेल्फस' के राजदूत के रूप में काफ़ी दिनों तक सम्राट अशोक के राज दरबार में रहा था।
- अन्य पुस्तकों में 'पेरीप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी', लगभग 150 ई. के आसपास टॉलमी का भूगोल, प्लिनी का 'नेचुरल हिस्टोरिका' (ई. की प्रथम सदी) महत्त्वपूर्ण है। ‘पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी‘ ग्रंथ जिसकी रचना 80 से 115 ई. के बीच हुई है, में भारतीय बन्दरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है। प्लिनी के ‘नेचुरल हिस्टोरिका‘ से भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थो की जानकारी मिलती है।
चीनी लेखक
[[चित्र:Xuanzang.jpg|thumb|120px|ह्वेन त्सांग
Xuanzang]]
चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है सभी चीनी लेखक यात्री बौद्ध मतानुयायी थे और वे इस धर्म के विषय में कुछ विषय जानकारी के लिए ही भारत आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे-
फ़ाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग, मल्वानलिन, चाऊ-जू-कुआ आदि।
अरबी लेखक
पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज और संस्कृति के विषयों में हमें सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इन व्यापारियों और लेखकों में मुख्य हैं- अलबेरूनी, सुलेमान और अलमसूदी।
- उपर्युक्त विदेशी यात्रियों के विवरण के अतिरिक्त कुछ फारसी लेखकों के विवरण भी प्राप्त होते है जिनसे भारतीय इतिहास के अध्ययन में काफ़ी सहायता मिलती है। इसमें महत्त्वपूर्ण हैं-
- फ़िरदौसी (940-1020 ई.) कृतशाहनामा, (Book of Kings)
- रशदुद्वीन कृत 'जमीएत अल तवारीख़' अली अहमद कृत ‘चाचनामा‘ मिनहाज-उल-सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी‘, जियाउद्वीन बरनी कृत ‘तारीख-ए-फिरोजशाही एवं अबुल फ़ज़ल कृत ‘अकबरनामा‘ आदि।
- यूरोपीय यात्रियों में 13 वी शताब्दी में वेनिस (इटली) से आये से सुप्रसिद्व यात्री मार्कोपोलों द्वारा दक्षिण के पाण्ड्य राज्य के विषय में जानकारी मिलती है।
पुरातत्व
पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं।
अभिलेख
इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है। [[चित्र:Brahmi Lipi-3.jpg|thumb|अशोक के शिलालेख|220px]] अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें सर्वप्रथम अशोक के शासन काल में ही मिलतें हैं। एक अभिलेख, जो हैदराबाद में 'मास्की' नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'गुर्जरा', मध्य प्रदेश, 'पानगुड्इया',मध्य प्रदेश से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी‘ राजा कहा गया है। अशोक के अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी, खरोष्ठी तथा आरमाइक लिपियों में मिलतें हैं जिसमें अधिकांश ब्राह्यी में खुदे हुए हैं। इस लिपि को बांयी से दायीं ओर लिखा जाता है। पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रयुक्त होने वाली ‘खरोष्ठी लिपि‘ दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान, में पाये गये अशोक के अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि आरमाइक व यूनानी थी।
अशोक के बाद अभिलेखों की परम्परा से जुड़े अन्य अभिलेख इस प्रकार हैं- खारवेल का खारवेल का हाथीगुम्फा, शक क्षत्रप प्रथम रुद्रदामान का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख इत्यादि। कुछ गैर सरकारी अभिलेख हैं जैसे यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर, विदिशा से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख। इससे द्वितीय शताब्दी ई.पू. में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वराह प्रतिमा पर हूण राजा तोरमाण के लेखों का विवरण है।
मुद्रायें
[[चित्र:Vim-Kadphises-Coin.JPG|thumb|विम कडफ़ाइसिस का सिक्का]] भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं की अतीव महत्ता है। भारत की प्राचीनतम मुद्राएं छठी शती ई.पू. में प्रचलित हुई। इन पर लेख नहीं होते थे। कुछ प्रतीक जैसे पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, जयामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें आहत मुद्रा (पंच मार्क्ड क्वायन्स) कहा जाता था। सर्वप्रथम भारत में शासन करने वाले यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। सर्वाधिक मुद्राएं उत्तर मौर्य काल में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताबें, कांसे, चांदी और सोने की होती हैं। कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएं प्रचलन में थे, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएं गुप्त काल में जारी की गयी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर 'यूप' पर 'अश्वमेध यज्ञ' और कुछ पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। कनिष्क की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे अनुमान लगाया जाता है कि उसने समुद्र विजय की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिमी भारत के शकों की विजय सूचित होती है।
स्मारक एवं भवन
इतिहास निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिर मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हडप्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कौशाम्बी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषितराम बिहार के अवशेष अंतरजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पांडिचेरी के अरिकमेडु में खुदाई से रोमन मुद्राओं, बर्तन आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। उस समय मंदिर निर्माण की प्रचलित नागर शैलियों में ‘ नागर शैली‘ उत्तर भारत में प्रचलित थी जबकि द्रविड़ शैली दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है उसे ‘वेसर शैली‘ कहा गया है। 8वीं शताब्दी में जावा में निर्मित बोराबुदुर मंदिर से बौद्ध धर्म की पहचान शाखा के प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है।
मूर्तियाँ
[[चित्र:Kambojika-Mathura Museum-6.jpg|thumb|कम्बोजिका]] प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरम्भ होता है। कुषाणें, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जनसामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में व्याप्त मूलभूत अंतर इस प्रकार है-
- कुषाणकालीन मूर्तियां विदेशी प्रभाव से ओतप्रोत हैं वहीं पर गुप्तकालीन मूर्तियां स्वाभविकता से ओत-प्रोत हैं।
- भरहुत, बोधगया, सांची और अमरावती में मिली मूर्तियां, मूर्तिकला में जनसामान्य के जीवन की अति सजीव झांकी प्रस्तुत करती है।
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चित्रकला
चित्रकला से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।
पाषाण काल
[[चित्र:Stone-Tools-mohenjo-daro.jpg|thumb|अस्त्र, मोहनजोदाड़ो 3000 ई.पू.]]
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समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
- प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल(Prehistoric Age),
- आद्य ऐतिहासिक काल(Proto-historic Age)
- ऐतिहासिक काल(Historic Age)
भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियाँ
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प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। - 1. नीग्रिटों 2. प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड 3. मंगोलायड 4. भूमध्य सागरीय 5. पश्चिमी ब्रेकी सेफल 6. नॉर्डिक
सिंधु घाटी सभ्यता
[[चित्र:Mohenjodaro-Sindh.jpg|thumb|सिन्ध में मोहनजोदाड़ो में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष|250px]]
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आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
विशेष इमारतें
सिंधु घाटी प्रदेश में हुई खुदाई कुछ महत्त्वपूर्ण ध्वंसावशेषों के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों में महत्त्वपूर्ण थे - दुर्ग, रक्षा-प्राचीर, निवासगृह, चबूतरे, अन्नागार आदि ।
दुर्ग
नगर की पश्चिमी टीले पर सम्भवतः सुरक्षा हेतु एक 'दुर्ग' का निर्माण हुआ था जिसकी उत्तर से दक्षिण की ओर लम्बाई 460 गज एवं पूर्व से पश्चिम की ओर लम्बाई 215 गज थी। ह्वीलर द्वारा इस टीले को 'माउन्ट ए-बी' नाम प्रदान किया गया है। दुर्ग के चारों ओर क़रीब 45 फीट चौड़ी एक सुरक्षा प्राचीर का निर्माण किया गया था जिसमें जगह-जगह पर फाटकों एव रक्षक गृहों का निर्माण किया गया था। दुर्ग का मुख्य प्रवेश मार्ग उत्तर एवं दक्षिण दिशा में था।
दुर्ग के बाहर उत्तर की ओर 6 मीटर ऊंचे 'एफ' नामक टीले पर पकी ईटों से निर्मित अठारह वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं जिसमें प्रत्येक चबूतरे का व्यास क़रीब 3.2 मीटर है चबूतरे के मध्य में एक बड़ा छेद हैं, जिसमें लकड़ी की ओखली लगी थी, इन छेदों से जौ, जले गेंहू एवं भूसी के अवशेष मिलतें हैं। इस क्षेत्र में श्रमिक आवास के रूप में पन्द्रह मकानों की दो पंक्तियां मिली हैं जिनमें सात मकान उत्तरी पंक्ति आठ मकान दक्षिणी पंक्ति में मिलें है, प्रत्येक मकान में एक आंगन एवं क़रीब दो कमरे अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये मकान आकार में 17x7.5 मीटर के थे। चबूतरों के उत्तर की ओर निर्मित अन्नागारों को दो पंक्तियां मिली हैं, जिनमें प्रत्येक पंक्ति में 6-6 कमरे निर्मित हैं, दोनों पंक्तियों के मध्य क़रीब 7 मीटर चौड़ा एक रास्ता बना था। प्रत्येक अन्नागार क़रीब 15.24 मीटर लम्बा एवं 6.10 मीटर चौड़ा हैं। thumb|250px|हड़प्पा मुहर
हड़प्पा लिपि
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हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिन्ह हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिन्ह अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिन्ह को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'
मृण्मूर्तियां
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हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, बाघ, सुअर, गैंडा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बत्तख़ एवं कबूतर की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली हैं।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषताएं
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हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।
हडप्पा जनजीवन
[[चित्र:King-priest-mohenjo-daro.jpg|thumb|प्रधान अनुष्ठानकर्ता मोहनजोदाड़ो 2000 ई.पू.]]
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हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।
- ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया।
- स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था।
- मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।
सैंधव-सभ्यता का विनाश
सैधव-सभ्यता के पतन के संदर्भ में ह्नीलर का मत पूरी तरह से अमान्य हो चुका है। हरियूपिया का उल्लेख जो ऋग्वेद में प्राप्त है उस ह्नीलर ने हड़प्पा मान लिया और किले को पुर और आर्या के देवता इंद्र को पुरंदर (किले को नष्ट करने वाला) मानकर यह सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया कि सैंधव नगरों का पतन आर्यो के आक्रमण के कारण् हुआ था। ध्यातव्य है कि ह्नीलर का यह सिद्धान्त तभी खंडित हो जाता है जब सिंधु-सभ्यता को नागरीय सभ्यता घोषित किया जाता है। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त नर कंकाल किसी एक की समय के नहीं है जिनमें व्यापक नरसंहर द्योतित हो रहा है।
मत | इतिहासकार |
---|---|
1- प्रशासनिक शिथिलता के कारण इस सभ्यता का विनाश हुआ। | जॉन मार्शल |
2- जलवायु में हुए परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई। | ऑरेल स्टाइन |
3- सिंधु सभ्यता बाढ़ के कारण नष्ट हुई। | अर्नेस्ट मैके एवं जॉन मार्शल |
4- भू तात्विक परिवर्तन के कारण सभ्यता नष्ट हुई। | एम.आर.साहनी, आर.एल.राइक्स, जॉर्ज एफ.डेल्स, एच.टी.लैम्ब्रिक |
5- मोहनजोदाड़ो के लोगों की आग लगाकर हत्या कर दी गयी। | डी.डी. कोसाम्बी |
6- सैंधव सभ्यता विदेशी आक्रमण व आर्यों के आक्रमण से नष्ट हुई। | गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर, डी.एच.गार्डन, स्टुअर्ड पिग्ग्ट |
प्रागैतिहासिक काल
[[चित्र:Dancing-girl-mohenjo-daro.jpg|thumb|नृत्यांगना मोहनजोदाड़ो 2500 ई.पू.]] भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था। आर्यों द्वारा वे क्रमिक रीति से उत्तर से दक्षिण की ओर खदेड़ दिये गए। जहाँ दीर्घ काल तक उनका प्रधान्य रहा। बाद में उन्होंने आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। उनसे विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये और अब वे महान भारतीय राष्ट्र के अंग हैं। द्रविड़ों के अलावा देश में और मूल जातियाँ थी, जिनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व मुण्डा, कोल, भील आदि जनजातियाँ करती हैं जो मोन-ख्मेर वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। भारतीय आर्यों का प्राचीनतम साहित्य हमें वेदों में विशेष रूप से ऋग्वेद में मिलता है, जिसका रचनाकाल कुछ विद्वान तीन हज़ार ई. पू. मानते हैं। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। आर्यों ने इस देश को कोई राजनीतिक एकता प्रदान नहीं की। यद्यपि उन्होंने उसे एक पुष्ट दर्शन और धर्म प्रदान किया, जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रख्यात है और कम से कम चार हज़ार वर्ष से अक्षुण्ण है।
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महाजनपद युग

प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत क़ाबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था।
इन राज्यों में आपस में बराबर लड़ाई होती रहती थी। छठीं शताब्दी ई. पू. के मध्य में बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के राज्य काल में मगध ने काशी तथा कोशल पर अधिकार करने के बाद अपनी सीमाओं का विस्तार आरम्भ किया। इन्हीं दोनों मगध राजाओं के राज्यकाल में वर्धमान महावीर ने जैन धर्म तथा गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का उपदेश दिया। बाद के काल में मगध राज्य का विस्तार जारी रहा और चौथी शताब्दी ई. पू. के अंत में नन्द राजाओं के शासनकाल में उसका विस्तार बंगाल से लेकर पंजाब में व्यास नदी के तट तक सारे उत्तरी भारत में हो गया।
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प्राचीन भारत
मौर्य और शुंग
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[[चित्र:Chanakya.jpg|thumb|250px|चाणक्य]] यूनानी इतिहासकारों के द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ व्यास पार करके प्रेसिआई देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने 326 ई. में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हो गया। वह सिंधु के मार्ग से पीछे लौट गया। इस घटना के बाद ही मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 322 ई. पू.-298 ई. पू.) ने पंजाब में सिकन्दर जिन यूनानी अधिकारियों को छोड़ गया था, उन्हें निकाल बाहर किया और बाद में एक युद्ध में सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस को हरा दिया। सेल्युकस ने हिन्दूकुश तक का सारा प्रदेश वापस लौटा कर चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि कर ली। चन्द्रगुप्त ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सम्भ्वतः दक्षिण भी विजय कर लिया। वह अपने इस विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन करता था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। उसका पौत्र अशोक था, जिसने कलिंग (उड़ीसा) को जीता। उसका साम्राज्य हिमालय के पादमूल से लेकर दक्षिण में पन्नार नदी तक तथा उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में आसाम की सीमा तक विस्तृत था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के समय साधनों को मनुष्यों तथा पशुओं के कल्याण कार्यों तथा बौद्ध धर्म के प्रसार में लगाकर अमिट यश प्राप्त किया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भिक्षुओं को मिस्र, मक़दूनिया तथा कोरिन्थ (प्राचीन यूनान की विलास नगरी) जैसे दूर-दराज स्थानों में भेजा और वहाँ लोकोपकारी कार्य करवाये। उसके प्रयत्नों से बौद्ध धर्म विश्वधर्म बन गया। परन्तु उसकी युद्ध से विरत रहने की शान्तिपूर्ण नीति ने उसके वंश की शक्ति क्षीण कर दी और लगभग आधी शताब्दी के बाद पुष्यमित्र ने उसका उच्छेद कर दिया। पुष्यमित्र ने शुंगवंश (लगभग 185 ई. पू.- 73 ई. पू.) की स्थापना की, जिसका उच्छेद कराव वंश (लगभग 73 ई. पू.-28 ई. पू.) ने कर दिया।
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शक, कुषाण और सातवाहन
[[चित्र:RabatakInscription.jpg|thumb|130px|राबाटक लेख]] [[चित्र:kanishk.jpg|thumb|100px|left|कनिष्क]] मौर्यवंश के पतन के बाद मगध की शक्ति घटने लगी और सातवाहन राजाओं के नेतृत्व में मगध साम्राज्य दक्षिण से अलग हो गया। सातवाहन वंश को आन्ध्र वंश भी कहते हैं और उसने 50 ई. पू. से 225 ई. तक राज्य किया। भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अभाव में बैक्ट्रिया और पार्थिया के राजाओं ने उत्तरी भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये। इन आक्रमणकारी राजाओं में मिनाण्डर सबसे विख्यात है। इसके बाद ही शक राजाओं के आक्रमण शुरू हो गये और महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा मथुरा शक क्षत्रपों के शासन में आ गये। इस तरह भारत की जो राजनीतिक एकता भंग हो गयी थी, वह ईस्वीं पहली शताब्दी में कुजुल कडफ़ाइसिस द्वारा कुषाण वंश की शुरूआत से फिर स्थापित हो गयी। इस वंश ने तीसरी शताब्दी ईस्वीं के मध्य तक उत्तरी भारत पर राज्य किया। [[चित्र:Menander-Coin.jpg|thumb|150px|मिलिंद (मिनांडर) का सिक्का]] इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क (लगभग 120-144 ई.) था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक जैसे भारतीय विद्वानों को संरक्षण दिया। कुषाणवंश का अज्ञात कारणों से तीसरी शताब्दी के मध्य तक पतन हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास का अंधकार युग आरम्भ होता है। जो चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्तवंश के उदय से समाप्त हुआ।
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गुप्त
[[चित्र:Poet-Kalidasa.jpg|thumb|120px|कालिदास]] [[चित्र:Udaygiri-Caves-Vidisha-1.jpg|thumb|left|वराह अवतार भित्ति मू्र्तिकला, गुप्त काल, उदयगिरि गुफ़ाएँ]] लगभग 320 ई. पू. में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश को प्रचलित किया और पाटलिपुत्र को फिर से अपनी राजधानी बनाया। गुप्त वंश में एक के बाद एक चार महान शक्तिशाली राजा हुए, जिन्होंने सारे उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया और दक्षिण के कई राज्यों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को राज्य धर्म बनाया, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में कालिदास, आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर हुए। रामायण, महाभारत, पुराणों तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री फ़ाह्यान ने 401 से 410 ई. के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का 'स्वर्णयुग' माना जाता है और उसकी तुलना एथेन्स के परीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग 492-529 ई. पू.) एथेन्स का महान राजनेता तथा सेनापति था। उसके शासनकाल (460-429 ई. पू.) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया)। आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठी शताब्दी में गुप्त वंश का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हर्षवर्धन ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षिण में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने उसका साम्राज्य नर्मदा तट से आगे बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री हुएनसांग उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपनी यात्रा वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह 646 ई. में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर से अव्यवस्था फैल गयी। [[चित्र:Samraat Mihir Bhoj Mahaan.jpg|thumb|150px|सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा, अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली]]
मध्यकालीन भारत 1
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तीन साम्राज्यों का युग (8वीं - 10वीं शताब्दी)
सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।
इस युग की एक और महत्त्वपूर्ण बात राज्य और धर्म के बीच सम्बन्ध है। इस युग के कई शासक शैव और वैष्णव और कई बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले थे। वे ब्राह्मणों, बौद्ध बिहारों और जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान देते थे, लेकिन वे किसी भी व्यक्ति के प्रति उसके धार्मिक विचारों के लिए भेदभाव नहीं रखते थे और सभी मतावलंबियों को संरक्षण प्रदान करते थे। राष्ट्रकूट नरेशों ने भी मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म प्रचार की स्वीकृति दी। साधारणतः कोई भी राजा धर्मशास्त्रों के नियमों तथा अन्य परम्पराओं में हस्तक्षेप नहीं करता था और इन मामलों में वह पुरोहित की सलाह पर चलता था। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पुरोहित राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करता था अथवा राजा पर उसका किसी प्रकार का दबाव था। इस युग के धर्मशास्त्रों के महान व्याख्याकार मेधतिथि का कहना है कि राजा के अधिकार व्यंजित करने वाले स्रोत वेद सहित धर्मशास्त्रों के अलावा 'अर्थशास्त्र' भी है। उसका 'राजधर्म' अर्थशास्त्र में निहित सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ यह था कि राजा को राजनीति और धर्म को बिल्कुल अलग-अलग रखना चाहिए और धर्म को राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उस युग के शासकों पर न तो पुरोहितों और न ही उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म-क़ानून का कोई प्रभाव था। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उस युग में राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष थे।
इन तीनों साम्राज्यों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे अधिक दीर्घजीवी रहा। यह न केवल अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, वरन इसने आर्थिक तथा सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का कार्य किया।
पाल साम्राज्य
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हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफ़ी सहायता मिली। [[चित्र:Ellora-Caves-Aurangabad-Maharashtra-4.jpg|thumb|एलोरा की गुफ़ाएं, औरंगाबाद]]
राष्ट्रकूट साम्राज्य
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जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई. में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही महाराष्ट्र के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। वंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मदुरई के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा।
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गुर्जर प्रतिहार राजवंश
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इतिहास के अनुसार 5वी सदी में भिन्नमाल गुर्जर साम्राज्य की राजधानी थी तथा इसकी स्थापना गुर्जरो ने की थी। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग अपने लेखो में गुर्जर साम्राज्य का उल्लेख करता है तथा इसे kiu-che-lo बोलता है।[3]6 से 12 वीं सदी में गुर्जर कई जगह सत्ता में थे। गुर्जर प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी। मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है। 12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना शुरू हुआ और ये कई हिस्सों में बँट गए। अरब आक्रान्ताओं ने गुर्जरो की शक्ति तथा प्रसाशन की अपने अभिलेखों में भूरि-भूरि प्रशंसा की है।[4]इतिहासकार बताते है कि मुग़ल काल से पहले तक राजस्थान तथा गुजरात, गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि के नाम से जाना जाता था।[5]अरब लेखकों के अनुसार गुर्जर उनके सबसे भयंकर शत्रु थे।[6]
राजपूत साम्राज्य
[[चित्र:Prithvi-Raj-Chauhan-Statue-Ajmer.jpg|thumb|पृथ्वीराज चौहान की प्रतिमा, अजमेर]]
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गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों की नींव पड़ी।। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, अजमेर का चौहान वंश, कन्नौज का गहड़वाल वंश तथा मगध और बंगाल का पाल वंश था। दक्षिण में भी सातवाहन वंश के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। उड़ीसा के गंग वंश जिसने पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर बनवाया, वातापी के चालुक्य वंश, जिसके राज्यकाल में अजन्ता के कुछ गुफ़ा चित्र बने तथा कांची के पल्लव वंश ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बांट लिया और परस्पर युद्धों में एक दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद मान्यखेट अथवा मालखड़ के राष्ट्रकूट वंश का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर के चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया। जिसने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद देवगिरि के यादवों तथा द्वारसमुद्र के होयसल वंश ने कर दिया। सुदूर दक्षिण में चेर, पांड्य और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया।
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चोल साम्राज्य नौवीं से बारहवीं शताब्दी
[[चित्र:Uttama coin.png|thumb|चोल साम्राज्य का सिक्का जो श्रीलंका में मिला]]
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चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का 'स्वर्ण युग' था।
भव्य मन्दिरों का निर्माण
[[चित्र:Khajuraho-Temples.jpg|thumb|खजुराहो मंदिर, मध्य प्रदेश]]
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आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे।
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मध्यकालीन भारत 2
इस्लाम का प्रवेश
[[चित्र:Islam-Symbol.jpg|thumb|200px|इस्लाम धर्म का प्रतीक]]
इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
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आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म 800 ई. से 1200 ई.
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इस काल में भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।
संघर्ष का युग लगभग 1000 ई. से 1200 ई. तक
पश्चिम के साथ-साथ मध्य एशिया तथा उत्तर भारत में भी 1000 ई. तथा 1200 ई. के बीच तेज़ी के साथ परिवर्तन हुए। इन्हीं परिवर्तनों के परिणमस्वरूप इस काल के अन्त में उत्तर भारत में तुर्कों के आक्रमण हुए। नौवीं शताब्दी के अन्त तक अब्बासी ख़लिफ़ों का पतन आरम्भ हो गया था। उनका साम्राज्य अब छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था, जिन पर मुसलमान तुर्कों का शासन था। तुर्क, अब्बासी साम्राज्य में महल रक्षकों तथा पेशेवर सैनिकों के रूप में आए थे। लेकिन शीघ्र ही इतने शक्तिशाली बन गए कि नियुक्ति पर भी उनका अधिकार हो गया। जैसे-जैसे केन्द्रीय सरकार की शक्ति कम होती गई, प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे, यद्यपि कुछ समय तक इस पर एकता का पर्दा पड़ा रहा, क्योंकि सफल सरदारों को, जो किसी क्षेत्र में अपना अधिकार जमाने में सफल हो जाते थे, ख़लीफ़ा ही औपचारिक रूप से 'अमीर-उल-उमरा' (सेनापतियों का सेनापति) की पदवी देता था। ये शासक पहले 'अमीर' की, पर बाद में 'सुल्तान' की पदवी ग्रहण करने लगे।
एक के बाद एक साम्राज्य स्थापित होते गए और उतनी ही जल्दी उनका पतन होता गया। इन्होंने एक नयी प्रकार की युद्धनीति शुरू की। जिसमें प्रमुख भूमिका भारी अस्त्रशस्त्रों से लैस घुड़सवार सैनिकों की होती थी, जो तेज़ी से आगे-पीछे सरक सकते थे और घोड़े की पीठ से ही तीरों की बौछार कर सकते थे। यह लोहे की रक़ाबों से ही सम्भव था। 'लोहे की रक़ाबों' तथा एक नए तरह की 'लगाम' के कारण युद्धनीति में इस तरह का परिवर्तन आया। इसी बीच गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य के विघटन से उत्तरी भारत कई छोट-छोटे राज्यों में बंट गया जिनके शासकों के पास इस नई युद्ध नीति के महत्त्व को समझने तथा उसका मुक़ाबला करने के न तो साधन थे और न ही इच्छा थी।
महमूद ग़ज़नवी
[[चित्र:Sultan-Mahmud-Ghaznawi.jpg|thumb|180px|महमूद ग़ज़नवी]]
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यह यमीनी वंश का तुर्क सरदार ग़ज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था । उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई. 971) में हुआ, 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई. 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था । महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था । उसके पिता ने एक बार हिन्दू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूटकर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था । उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था । उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है ।
उत्तर भारत पर तुर्कों की विजय
पंजाब में ग़ज़नवियों के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच दो विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हुए। एक तो लूट की लालसा थी जिसके परिणाम स्वरूप महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा घाटी और राजपूताना में कई बार आक्रमण किए। राजपूत शासकों ने इन आक्रमणों का डट कर मुक़ाबला किया और कई बार तुर्कों को पराजित भी किया। लेकिन अब तक ग़ज़नवी साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और तुर्कों को कई बार पराजित कर राजपूत शासक चैन से बैठ गए। दूसरे स्तर पर मुसलमान व्यापारियों को न केवल स्वीकृति दी गई वरन उनका स्वागत भी किया गया क्योंकि उनके माध्यम से मध्य और पश्चिम एशिया के साथ भारत के व्यापार को बहुत बढ़ावा मिलता था और इससे इन राज्यों की आय भी बढ़ती थी। इस कारण उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुसलमान व्यापारियों की कई बस्तियाँ स्थापित हो गईं। व्यापारियों के पीछे-पीछे कई मुसलमान धर्म प्रचारक भी आए जिन्होंने यहाँ सूफ़ी मत का प्रचार किया। इस प्रकार इस्लाम और हिन्दू समाज तथा और धर्मों में सम्पर्क स्थापित हुआ और वे दोनों एक दूसरे से प्रभावित हुए। लाहौर, अरबी तथा फ़ारसी भाषा और साहित्य का केन्द्र बन गया। तिलक जैसे हिन्दू सेनापतियों ने ग़ज़नवियों की सेना का नेतृत्व किया। ग़ज़नवियों की सेना में हिन्दू, सिपाही भी भर्ती होते थे।
ये दोनों प्रक्रियाएँ बराबर जारी रहतीं, यदि इसी बीच मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन न होता। बारहवीं शताब्दी के मध्य तक तुर्की क़बीलों के एक और दल ने, जो कुछ हद तक बौद्ध और कुछ हद तक विधर्मी था, सेलजुक तुर्कों को उखाड़ का। इस प्रकार जो स्थान रिक्त हुआ उसमें दो नयी शक्तियाँ - ख्वारिज़मी और ग़ोरी का उदय हुआ। ख्वारिज़मी साम्राज्य का आधार ईरान था तथा ग़ोरी साम्राज्य का आधार उत्तर-पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान। ग़ोरी आरम्भ में ग़ज़नी के 'सामंत' थे, पर शीघ्र ही ये इस बोझ को उठा फेंकने में सफल हो गए। ग़ोरियों की शक्ति सुल्तान अलाउद्दीन के समय बहुत बढ़ी। उसे 'संसार को जलाने वाला' कहा जाता था। क्योंकि उसने भाइयों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के बदले के रूप में सारी ग़ज़नी को जलाकर ख़ाक में मिला दिया था। ख्वारिज़मी शासकों के कारण ग़ोरी मध्य एशिया में अपने पाँव जमाने की इच्छा को पूरा नहीं कर सके। उन दोनों के बीच झगड़े की जड़; ख़ुरासान पर ख्वारिज़मी शाह ने अधिकार कर लिया। इससे ग़ोरियों के लिए भारत की ओर बढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।
मुहम्मद बिन क़ासिम और महमूद ग़ज़नवी
मुइज्जुद्दीन मोहम्मद बिन क़ासिम की तुलना अक्सर महमूद ग़ज़नवी से की जाती है। योद्धा के रूप में महमूद ग़ज़नवी अधिक सफल था क्योंकि भारत अथवा मध्य एशिया के एक भी अभियान में वह पराजित नहीं हुआ। वह भारत के बाहर भी एक बड़े साम्राज्य पर शासन करता था। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि महमूद की अपेक्षा मुइज्जुद्दीन को भारत में और बड़े तथा संसंगठित राज्यों का सामना करना पड़ा। यद्यपि वह मध्य एशिया में उतना सफल नहीं हो सका, भारत में उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ और बड़ी थीं। उन दोनों को विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अतः इन दोनों की तुलना से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। इसके अलावा भारत में राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से इन दोनों का लक्ष्य कई बातों में बिल्कुल भिन्न था। इन दोनों में से किसी को भी इस्लाम में विशेष दिलचस्पी नहीं थी। यदि एक बार कोई शासक उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लेता तो उसे अपने क्षेत्र में शासन करने दिया जाता। केवल विशेष परिस्थितियों में उसके पूरे राज्य अथवा उसके किसी हिस्से को पूरी तरह अपने अधिकार में लेना आवश्यक हो जाता। महमूद तथा मुइज्जुद्दीन दोनों की सेनाओं में हिन्दू सैनिक और अधिकारी थे और दोनों में से किसी ने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने तथा भारतीय शहरों और मन्दिरों की लूट को उचित ठहराने के लिए इस्लाम के नारों का सहारा लेने में हिचकिचाहट महसूस नहीं की। पन्द्रह वर्षों की छोटी अवधि में उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों ने तुर्की सेनाओं के सामने घुटने टेक दिए। इसके कारण भी जानना आवश्यक है। यह एक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि एक देश दूसरे से तभी पराजित होता है जब वह सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर पड़ गया हो तथा अपने पड़ोसियों की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से पीछे पड़ गया हो।
भव्य मन्दिरों का निर्माण
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आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे।
पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी
[[चित्र:Muhammad-Ghori.jpg|thumb|मुहम्मद ग़ोरी]]
फ़ारस तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से क़ब्ज़ा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद मुल्तान और उच्छ पर अधिकार करने की चेष्टा कर रहा था, एक चौदह साल का लड़का, पृथ्वीराज अजमेर की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज के बारे में कई कहानियाँ मशहूर हैं।
उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोके रखा। शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी का दिल्ली जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और पृथ्वीराज ने 1190 ई. में तराईन की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह 1193 ई. में तराईन की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गई।
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क़ुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ई.)
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तराइन के युद्ध के बाद मुइज्जुद्दीन ग़ज़नी लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ दिया। पृथ्वीराज के पुत्र को रणथम्भौर सौंप दिया गया जो तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चौहानों की राजधानी बना। अगले दो वर्षों में ऐबक ने, ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन तथा कोइल (आधुनिक अलीगढ़) पर क़ब्ज़ा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुक़ाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहदवालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुक़सान का ख़तरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया। मुइज्जुद्दीन 1194 ई0 में भारत वापस आया। वह पचास हज़ार घुड़सवारों के साथ यमुना को पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा। इटावा ज़िले में कन्नौज के निकट छंदवाड़ में मुइज्जुद्दीन और जयचन्द्र के बीच भीषण लड़ाई हुई। इस अवधि में उसने दिल्ली की दक्षिण सीमा की सुरक्षा के लिए बयाना तथा ग्वालियर के क़िलों पर क़ब्ज़ा किया। उसके बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कालिंजर, महोबा तथा खजुराहो को छीन लिया। ऐबक ने गुजरात तथा अन्हिलवाड़ के शासक भीम द्वितीय को पराजित किया और कई नगरों में लूटपाट मचाई। यहाँ यद्यपि एक मुसलमान शासक को नियुक्त किया गया था पर उसे शीघ्र ही गद्दी से उतार दिया गया। इससे पता चलता है कि तुर्क इतने दूर दराज क्षेत्रों में शासन करने के लायक़ शक्ति नहीं बने थे।
ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार
जब ऐबक और तुर्की और ख़िलजी सरदार उत्तर भारत में नए क्षेत्रों को जीतने और अपनी स्थिति मज़बूत करने की चेष्टा कर रहे थे, मुइज्जुद्दीन और उसका भाई मध्य एशिया में ग़ोरी साम्राज्य का विस्तार करने लगे थे। ग़ोरियों की विस्तार की आकांक्षा ने उन्हें शक्तिशाली ख्वारिज़म साम्राज्य से टक्कर लेने पर मज़बूर कर दिया। ख्वारिज़म शासक ने मुइज्जुद्दीन को 1203 में करारी मात दी। लेकिन यह पराजय एक प्रकार से उनके लिए लाभदायक सिद्ध हुई। क्योंकि इसके कारण उन्हें एशिया में विस्तार की आकांक्षा को त्यागना पड़ा और उन्होंने भारत में विस्तार की ओर अपना पूरा ध्यान लगा दिया। लेकिन इस युद्ध का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि मुइज्जुद्दीन की हार से साहस पा कर भारत में उसके कई विरोधियों ने बग़ावत कर दी। पश्चिम बंगाल की लड़ाकू जाति खोकर ने लाहौर और ग़ज़नी के बीच सम्पर्क साधनों को काट दिया। मुइज्जुद्दीन ने भारत में अपना अंतिम आक्रमण खोकरों के विद्रोह को दबाने के लिए किया जिसमें वह सफल भी हुआ। ग़ज़नी लौटते समय वह एक विरोधी मुस्लिम सम्प्रदाय के कट्टर समर्थक द्वारा मारा गया।
दिल्ली सल्तनत (मध्यकालीन भारत 3)
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दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप भारत की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी प्रशासनिक व्यवस्था एक ऐसे धर्म पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल स्थापत्य एवं वास्तुकला के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश (1206 से 1290 ई.)
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तुर्क पंजाब और मुल्तान से लेकर गंगा घाटी तक, यहाँ तक की बिहार तथा बंगाल के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। इनके राज्य को 'दिल्ली सल्तनत' के नाम से जाना जाता है। क़रीब सौ वर्षों तक इन तुर्कों को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विदेशी आक्रमणों, तुर्की नेताओं के आंतरिक मतभेदों तथा विजित राजपूत शासकों द्वारा अपने राज्य को पुनः वापस लेने और यदि सम्भव हो तो तुर्कों को बाहर निकाल देने के प्रयासों का सामना करना पड़ा। तुर्की शासक इन बाधाओं को पार कर विजय पाने में सफल हुए और तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक उन्होंने न केवल मालवा और गुजरात को अपने अधीन कर लिया, वरन दक्कन और दक्षिण भारत तक पहुँच गए। इस प्रकार उत्तर भारत में स्थापित तुर्की साम्राज्य का प्रभाव सारे भारत पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप सौ वर्षों में समाज, प्रशासन तथा सांस्कृतिक जीवन पर दूरगामी परिवर्तन हुए।
इल्तुतमिश/अल्तमश (1201 ई0-1236 ई0)
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चौगान खेलते समय 1210 ई0 में घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका दामाद इल्तुतमिश उसका उत्तराधिकारी बना, पर सिंहासन पर बैठने के पहले उसे ऐबक के पुत्र से युद्ध कर उसे पराजित करना पड़ा। इस प्रकार आरम्भ से ही पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र के सिंहासनाधिकार की प्रथा को धक्का लगा।
अल्तमश (1210-36) को उत्तर भारत में तुर्कों के राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसके सिंहासन पर बैठने के समय 'अली मर्दन ख़ाँ' ने बंगाल और बिहार तथा ऐबक के एक और ग़ुलाम, 'कुबाचा' ने, मुल्तान के स्वतंत्र शासकों के रूप में घोषणा कर दी थी। कुबाचा ने लाहौर तथा पंजाब के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार भी कर लिया। पहले पहल दिल्ली के निकट भी अल्तमश के कुछ सहकारी अधिकारी उसकी प्रभुता स्वीकार करने में हिचकिचा रहे थे। राजपूतों ने भी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दीं। इस प्रकार कालिंजर, ग्वालियर तथा अजमेर और बयाना सहित सारे पूर्वी राजस्थान ने तुर्की बोझ अपने कन्धों से उतार फेंका।
रज़िया सुल्तान (1236-39)
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अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री 'रज़िया' को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला थी, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था।
बलबन का युग (1246-86)
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तुर्क सरदारों और शासन के बीच संघर्ष चलता रहा। एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1246 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका। आरम्भ में बलबन इल्तुतमिश के छोटे पुत्र नसीरूद्दीन महमूद का नायब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली।
ख़िलजी वंश (1290-1320 ई.)
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ख़िलजी कौन थे? इस विषय में पर्याप्त विवाद है। इतिहासकार 'निज़ामुद्दीन अहमद' ने ख़िलजी को चंगेज़ ख़ाँ का दामाद और कुलीन ख़ाँ का वंशज, 'बरनी' ने उसे तुर्कों से अलग एवं 'फ़खरुद्दीन' ने ख़िलजियों को तुर्कों की 64 जातियों में से एक बताया है। फ़खरुद्दीन के मत का अधिकांश विद्वानों ने समर्थन किया है। चूंकि भारत आने से पूर्व ही यह जाति अफ़ग़ानिस्तान के हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी, जिसे ख़िलजी के नाम से जाना जाता था। सम्भवतः इसीलिए इस जाति को ख़िलजी कहा गया। मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश के अन्तिम सुल्तान शमसुद्दीन क्यूमर्स की हत्या के बाद ही जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी सिंहासन पर बैठा था, इसलिए इतिहास में ख़िलजी वंश की स्थापना को ख़िलजी क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। ख़िलजी क्रांति केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि, उसने ग़ुलाम वंश को समाप्त कर नवीन ख़िलजी वंश की स्थापना की, बल्कि इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि, ख़िलजी क्रांति के परिणामस्वरूप् दिल्ली सल्तनत का सदूर दक्षिण तक विस्तार हुआ। जातिवाद में कमी आई और साथ ही यह धारणा भी खत्म हुई कि, शासन केवल विशिष्टि वर्ग का व्यक्ति ही कर सकता है।
तुग़लक़ वंश (1320-1414)
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ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। ग़यासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351-87)। इनमें से पहले दो शासकों का अधिकार क़रीब-क़रीब पूरे देश पर था। फ़िरोज का साम्राज्य उनसे छोटा अवश्य था, पर फिर भी अलाउद्दीन ख़िलजी के साम्राज्य से छोटा नहीं था। फ़िरोज की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत का विघटन हो गया और उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। यद्यपि तुग़लक़ 1412 तक शासन करत रहे, तथापि 1399 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुग़लक़ साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए।
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तैमूर
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दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतंत्र रहा, किन्तु सुल्तान ख़िलजी के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर से एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत आ गया। परन्तु दिल्ली सल्तनत का शीघ्र ही पतन शुरू हो गया और 1336 ई. में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी विजय नगर साम्राज्य थी। बंगाल (1338 ई.), जौनपुर (1393 ई.), गुजरात तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी बहमनी सल्तनत (1347 ई.) के नाम से स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया। 1398 ई. में तैमूर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।
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मुग़ल (मध्यकालीन भारत 4)
[[चित्र:Babar.jpg|बाबर|thumb|150px]]
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दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ़ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।
बाबर (1526 -1530 )
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526 में ई. पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंश (लोदी वंश) के सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हो गई। इस वंश का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', 'फ़रग़ना' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना। पारिवारिक कठिनाईयों के कारण वह मध्य एशिया के अपने पैतृक राज्य पर शासन नहीं कर सका। उसने केवल 22 वर्ष की आयु में क़ाबुल पर अधिकार कर अफ़ग़ानिस्तान में राज्य कायम किया था। वह 22 वर्ष तक क़ाबुल का शासक रहा। उस काल में उसने अपने पूर्वजों के राज्य को वापिस पाने की कई बार कोशिश की, पर सफल नहीं हो सका।
हुमायूँ
[[चित्र:Humayun.jpg|हुमायूँ|thumb|100px]]
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नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। हुमायूँ, बाबर के 4 पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल में सबसे बड़ा था। बाबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। भारत में राज्याभिषेक के पूर्व 1520 ई. में 12 वर्ष की अल्वायु में उसे बदख्शाँ का सूबेदार नियुक्त किया गया। बदख्शाँ के सूबेदार के रूप में हुमायूँ ने भारत के उन सभी अभियानों में भाग लिया, जिनका नेतृत्व बाबर ने किया था।
शेरशाह सूरी
[[चित्र:Shershah-Suri.jpg|शेरशाह सूरी|thumb|100px]]
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शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, बिहार के सासाराम का ज़मींदार था। फ़रीद ख़ाँ ने अपने अधिकारों की रक्षा एवं शक्ति के विस्तार के लिए बिहार के सुल्तान मुहम्मद शाह नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली। एक बार शिकार पर गये नुहानी के साथ फ़रीद ख़ाँ ने एक शेर को तलवार के एक ही बार से मार दिया। उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे ‘शेर ख़ाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1529 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को परास्त करके शेरख़ाँ ने हजरत-ए-आला की उपाधि धारण की। 1530 ई. में शेरख़ाँ ने चुनार के किलेदार ताज ख़ाँ की विधवा लाड़मलिका से विवाह करके चुनार का क़िला तथा बहुत सम्पत्ति प्राप्त की। हुमायूँ को हराने वाला शेर ख़ाँ, 'सूर' नाम के क़बीले का पठान सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने आगरा को अपनी राजधानी बनाया था।
अकबर (1556 1605)
[[चित्र:Akbar.jpg|thumb|100px|अकबर]]
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अकबर जलालुद्दीन मुहम्मद के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय हुमायूँ ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर ने अपने शासनकाल में सारे भारत को एक साम्राज्य के अंतर्गत लाने का प्रयास किया, जिसमें वह काफ़ी हद तक सफल भी रहा था।
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जहाँगीर (1605 - 1627)
[[चित्र:Jahangir.jpg|thumb|100px|जहाँगीर]]
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नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरियम ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। अकबर सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था। अपने आरंभिक जीवन में जहाँगीर शराबी और आवारा शाहज़ादे के रूप में बदनाम था। उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की, किंतु उसे सफलता नहीं मिली। इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवन-पर्यंत दुखी: रहा। अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना था। उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी। ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी। लोगों को आंशका होने लगी कि, अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का ज़माना फिर आ गया।
शाहजहाँ (1627 - 1658)
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[[चित्र:Tajmahal-03.jpg|thumb|150px|ताजमहल]] शिहाबुद्दीन मुहम्मद शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था। वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था। वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था। उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ की पुत्री 'आरज़ुमन्द बानो' से सन 1611 में हुआ था। वही बाद में 'मुमताज़ महल' के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई। 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ, जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था। फिर उस विवाह से उसकी शक्ति और भी बढ़ गई थी। नूरजहाँ, आसफ़ ख़ाँ और उनका पिता मिर्ज़ा गियासबेग़ जो जहाँगीर शासन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, शाहजहाँ के विश्वसनीय समर्थक हो गये थे। शाहजहाँ के शासन−काल में मुग़ल साम्राज्य की समृद्धि, शान−शौक़त और ख्याति चरम सीमा पर थी। उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे। वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट−बाट को देख कर चकित रह जाते थे। उसके शासन का अधिकांश समय सुख−शांति से बीता था; उसके राज्य में ख़ुशहाली रही थी। उसके शासन की सब से बड़ी देन उसके द्वारा निर्मित सुंदर, विशाल और भव्य भवन हैं।
औरंगज़ेब (1658 - 1707)
[[चित्र:Shahjahan.jpg|thumb|150px|औरंगज़ेब]]
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मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में उज्जैन के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था। 1643 ई. में औरंगज़ेब को 10,000 जात एवं 4000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ। ‘ओरछा’ के जूझर सिंह के विरुद्ध औरंगज़ेब को प्रथम युद्ध का अनुभव प्राप्त हुआ था। 18 मई, 1637 ई. को फ़ारस के राजघराने की 'दिलरास बानो बेगम' के साथ औरंगज़ेब का निकाह हुआ। 1636 ई. से 1644 ई. एवं 1652 ई. से 1657 ई. तक औरंगज़ेब गुजरात (1645 ई.), मुल्तान (1640 ई.) एवं सिंध का भी गर्वनर रहा। आगरा पर क़ब्ज़ा कर जल्दबाजी में औरंगज़ेब ने अपना राज्याभिषक "अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुजफ्फर औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर" की उपाधि से 31 जुलाई, 1658 ई. को दिल्ली में करवाया। ‘खजुवा’ एवं ‘देवराई’ के युद्ध में सफल होने के बाद 15 मई, 1659 ई. को औरंगज़ेब ने दिल्ली में प्रवेश किया, जहाँ शाहजहाँ के शानदार महल में जून, 1659 ई. को औरंगज़ेब का दूसरी बार राज्याभिषेक हुआ।
बहादुर शाह ज़फ़र (1837- 1858)
[[चित्र:Bahadur-Shah-II.jpg|thumb|100px|बहादुर शाह ज़फ़र]]
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बहादुर शाह ज़फ़र मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे। बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित रहे।
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आधुनिक काल
मराठा
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[[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|thumb|left|100px|शिवाजी]] [[चित्र:Ahilyabai-Holkar-Statue-Mathura-2.jpg|thumb|150px|अहिल्याबाई होल्कर प्रतिमा, मथुरा]] राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ कि राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ़ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी ने 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगज़ेब अन्तिम शक्तिशाली मुग़ल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वज़ीर विश्वासघाती थे। फ़ारस के नादिरशाह ने मुग़ल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने 1739 ई. में भारत पर चढ़ाई की और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे निर्दयता से पूरी तरह लूटा। उसके हमले से मुग़ल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। अवध, अखण्डित बंगाल तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतंत्र हो गये। पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने मुग़ल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाह की स्थापना का प्रयास किया।
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अंग्रेज़
[[चित्र:Vasco-da-gama.jpg|thumb|150px|वास्को द गामा]] फ़िरंगी लोग समुद्री मार्गों से भारत की ज़मीन पर पैर जमा चुके थे। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक मुग़ल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्त्व नहीं समझा। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बग़ैर सबसे पहले पुर्तग़ाली भारत पहुँचे। उसके बाद डच, अंग्रेज़, फ्राँसीसी आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रही, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तग़ालियों की सामुद्रिक शक्ति को समाप्त किया। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसाले वाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ़ अंग्रेज़ और फ्राँसीसी लोगों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।
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ईस्ट इंडिया कम्पनी
[[चित्र:East-India-Company-Seal.jpg|thumb|ईस्ट इण्डिया कम्पनी मुहर]]
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अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई शुरू हुई। जिसमें फ्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने पहली लड़ाई से सबक़ लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि निज़ाम के राज्य पर भी फ़्राँस का राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्त्वाकांक्षा पूरी नहीं होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद 1757 ई. में राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दौला के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड़यंत्र रचकर प्लासी की लड़ाई जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब मीर ज़ाफ़र को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेज़ी से कई घटनाएँ घटीं।
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पानीपत युद्ध
[[चित्र:Ahmad-Shah-Abdali.jpg|thumb|150px|अहमदशाह अब्दाली]]
अहमद शाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई. के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौक़ा खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
रेग्युलेटिंग एक्ट
बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने 1760 ई. में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्राँसीसियों को हरा दिया और 1762 ई. में उनसे पांडेचेरी ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। 1764 ई. में अंग्रजों ने बक्सर की लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह और अवध के नवाब की सम्मिलित सेना को हरा दिया और 1765 ई. में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के प्रशासन का क़ानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। 1773 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक रेग्युलेटिंग एक्ट पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस एक्ट के अंतर्गत भारत में कम्पनी क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कॉउंसिल गठित की गयी। एक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान किया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। वारेन हेस्टिंग्स, जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, 1773 ई. में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।
1773 ई. से 1947 ई. तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो 1858 ई. तक चला और दूसरा, 1858 से 1947 ई. तक का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन द्वारा होने लगा।
जनरल और वायसराय | कार्य / कार्यकाल |
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गवर्नर-जनरलों का समय
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कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। [[चित्र:Lord-Dalhousie.jpg|thumb|लॉर्ड डलहौज़ी|left|100px]] इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फ़ौजों से लड़ाई की उनमें से अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का ख़र्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप 1857 ई. तक सारे भारत पर सीधे कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा। 1833 के चार्टर एक्ट के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने वाले जहाज़ों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की ज़ब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें; इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी, जो 1857-58 ई. में क्रांति के रूप में भड़क उठी। [[चित्र:Tatya-Tope.jpg|thumb|100px|तात्या टोपे]] अन्तिम मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे (रामचंन्द्र पांडुरंग), बिहार के बाबू कुँवरसिंह, महाराष्ट्र से नाना साहिब, इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे किन्तु प्रयास विफल हो गया। अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को क्रांति से अलग रखा। कम्पनी को बलपूर्वक क्रांति को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु क्रांति के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा।
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
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thumb|भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज, 1931 इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। लॉर्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है—भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और 1947 ई. में भारत की स्वाधीनता के रूप में अंतिम विजय। 1857 ई. में कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चेन्नई) तथा बम्बई (मुम्बई) में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने लगा तथा 1869 ई. में स्वेज़ नहर खुलने के बाद इंग्लैण्ड तथा यूरोप से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्य वर्ग पश्चिमी दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्जा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। [[चित्र:Lord-Dufferin.jpg|thumb|left|लॉर्ड डफ़रिन]] ब्रिटिश में स्थापित शान्ति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक क़ौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सके।
इसके फलस्वरूप 1885 ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई. में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लॉर्ड डफ़रिन ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। लॉर्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लॉर्ड कर्ज़न ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा लॉर्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कॉउंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुचित रीति से अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।
प्रारम्भिक सफलता
कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 में मिली, जब इंग्लैण्ड में भारतमंत्री के निर्देशन में काम करने वाली भारत परिषद में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी, वाइसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा इंडियन काउंसिल एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लॉर्ड मार्ले ने हालाँकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई. में लॉर्ड कर्ज़न के द्वारा 1905 ई. में किया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।
द्वैधशासन प्रणाली
भारत के लिए स्वशासन की माँग करने में पहली बार भारतीय मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ संयुक्त हो गये और अगस्त 1917 ई. में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटेश शासन की नीति है कि शासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकारिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत्त शासन का क्रमिकरूप से विकास किया जाय, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत भारत में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर स्थापना हो सके। इस घोषणा के अनुसार 1919 का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया गया। इस एक्ट के द्वारा विधान मंडलों का विस्तार कर दिया गया और अब उनके बहुसंख्य सदस्य भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने लगे। एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के कार्यों का विभाजन कर दिया गया और प्रान्तों में द्वैधशासन प्रणाली लागू करके कार्यपालिका को आंशिक रीति से विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया। इस एक्ट के द्वारा भारत ने सुनिश्चित रीति से प्रगति की। भारतीय के इतिहास में पहली बार एक ऐसी संस्था की स्थापना की गयी, जिसके द्वारा ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी आधार पर एकत्र हो सकते थे। पहली बार उनका बहुमत स्थापित कर दिया गया और अब वे सरकार के कार्यों की निर्भयतापूर्वक आलोचना कर सकते थे।
असहयोग और सत्याग्रह
[[चित्र:Bhagat-Singh.gif|thumb|200px|100px|सरदार भगतसिंह]] इन सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गाँधी के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये रौलट एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों तथा जलियाँवाला बाग़ हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध
सरकार ने पहले की तरह आंदोलन को दबाने के लिए दमन और समझौते के दोनों रास्ते अख़्तियार किये और 1935 का गवर्नेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया। इस एक्ट के द्वारा ब्रिटश भारत तथा देशी रियासतों के लिए सम्मिलित रूप से एक संघीय शासन का प्रस्ताव किया, केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की स्थापना की गयी तथा प्रान्तों को स्वशासन प्रदान कर दिया गया। एक्ट का प्रान्तों से सम्बन्धित भाग लागू कर दिया गया तथा अप्रैल 1937 ई. में प्रान्तीय स्वशासन का श्रीगणेश कर दिया गया। परन्तु एक्ट के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग के लागू होने से पहले ही सितम्बर 1939 ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया जो 1945 ई. तक जारी रहा। यह विश्वव्यापी युद्ध था और ब्रिटेन को अपने सारे साधन उसमें झोंक देने पड़े। भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया और भारत के पास जन और धन की जो विशाल शक्ति थी उससे लाभ उठाकर तथा अमरीका की सहायता से ब्रिटेन युद्ध जीत गया। गाँधी जी के अमित प्रभाव तथा अहिंसा में उनकी दृढ़ निष्ठा के कारण भारत ने यद्यपि ब्रिटिश सम्बन्ध को बनाये रखा, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में नहीं रहना चाहता।
सम्प्रदायिक दंगे
कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।
स्वाधीनता और उसके बाद
thumb|15 अगस्त 1947 का अख़बार
Newspaper Of 15th August 1947
भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई. के शुरू में लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफ़सरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून 1947 को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त 1947 को इंडिपेडंस आफ इंडिया एक्ट पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।
गांधी जी की हत्या
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-1.jpg|thumb|100px|महात्मा गाँधी]]
स्वाधीन भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, वे सरल नहीं थीं। उसे सबसे पहले साम्प्रदायिक उन्माद को शान्त करना था। भारत ने जानबूझकर धर्म निरपेक्ष राज्य बनना पसंद किया। उसने आश्वासन दिया कि जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान को निर्गमन करने के बजाय भारत में रहना पसंद किया है उनको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्रदान किये जायेंगे। हालाँकि पाकिस्तान जानबूझकर अपने यहाँ से हिन्दुओं को निकाल बाहर करने अथवा जिन हिन्दुओं ने वहाँ रहने का फैसला किया था, उनको एक प्रकार से द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देने की नीति पर चल रहा था। लॉर्ड माउंटबेटेन को स्वाधीन भारत का पहला गवर्नर जनरल बनाये रखा गया और पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा अंतरिम सरकार में उनके कांग्रसी सहयोगियों ने थोड़े से हेरफेर के साथ पहले भारतीय मंत्रिमंडल का निर्माण किया। इस मंत्रिमंडल में सरदार पटेल तथा मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का तो सम्मिलित कर लिया गया था, परन्तु नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस को छोड़ दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई. को नाथूराम गोडसे नामक हिन्दू ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी। सारा देश शोक के सागर में डूब गया। नौ महीने के बाद, पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्नाहकी भी मृत्यु हो गयी। उसी वर्ष लॉर्ड माउंटबेटेन ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के प्रथम और अंतरिम गवर्नर जनरल नियुक्त हुए।
रियासतों का विलय
[[चित्र:Sardar-Vallabh-Bhai-Patel.jpg|thumb|100px|सरदार बल्लभ भाई पटेल]] अधिकांश देशी रियासतों ने , जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों—कश्मीर तथा हैदराबाद ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर श्रीनगर सहित कश्मीरी घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्रवाई के फलस्वरूप वह 1948 ई. में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मुख्य भूमिका रही।
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
संघ राज्यों का विलय
[[चित्र:Dr.Rajendra-Prasad.jpg|thumb|राजेन्द्र प्रसाद|100px]] भारतीय संविधान सभा के द्वारा 26 नवम्बर 1949 में संविधान पास किया गया। भारत का संविधान अधिनियम 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। इस संविधान में भारत को लौकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी थी। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद को पहला राष्ट्रपति चुना गया और बहुमत पार्टी के नेता के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मंत्री का पद ग्रहण किया। इस पद पर वे 27 मई 1964 ई. में, अपनी मृत्यु तक बने रहे। नवोदित भारतीय गणराज्य के लिए उनका दीर्घकालीन प्रधानमंत्रित्व बड़ा लाभदायी सिद्ध हुआ। उससे प्रशासन तथा घरेलू एवं विदेश नीतियों में निरंतरता बनी रही। पंडित नेहरू ने वैदेशिक मामलों में गुट-निरपेक्षता की नीति अपनायी और चीन से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये। फ्राँस ने 1951 ई. में चंद्रनगर शान्तिपूर्ण रीति से भारत का हस्तांतरित कर दिया। 1956 ई. में उसने अन्य फ्रेंच बस्तियाँ (पांडिचेरी, कारीकल, माहे तथा युन्नान) भी भारत को सौंप दीं। पुर्तग़ाल ने फ्राँस का अनुसरण करने और शान्तिपूर्ण रीति से अपनी पुर्तग़ाली बस्तियाँ (गोवा, दमन और दीव) छोड़ने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप 1961 ई. में भारत को बलपूर्वक इन बस्तियों को लेना पड़ा[7]। इस तरह भारत का एकीकरण पूरा हो गया।
क्रम | तिथि क्रम | विवरण |
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भारत के राज्यों का इतिहास
बाहरी कड़ियाँ
- Comparison of Indus Valley Harappan
- Indus Script
- सिंधुघाटी सभ्यता
- विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता
- सिंधु घाटी सभ्यता
- सिंधु घाटी सभ्यता
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- REDIRECT साँचा:टिप्पणीसूची
- ↑ पुस्तक 'भारत का इतिहास' रोमिला थापर) पृष्ठ संख्या-19
- ↑ देखें: शोध ग्रंथ वेल्स, स्पेन्सर (2002) अ जेनेटिक ओडिसी (अंग्रेज़ी)। प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका। ISBN 0-691-11532-X।
- ↑ Juzr or Jurz.। Persian Texts in Translation The Packard Humanities Institute। Archived from the original on 2007-09-29। अभिगमन तिथि: 2007-05-31।
- ↑ John Keay (2001) India: a history। Grove Press। ISBN 0-8021-3797-0, ISBN 978-0-8021-3797-5।
- ↑ Ramesh Chandra Majumdar (1977) The History and Culture of the Indian People: The classical age। Bharatiya Vidya Bhavan।
- ↑ John Keay (2001) India: a history। Grove Press। ISBN 0-8021-3797-0, ISBN 978-0-8021-3797-5।
- ↑ 1975 ई. में पुर्तग़ाली शासन ने वास्तविकता को समझकर इसको वैधानिक मान्यता दे दी है।
link=प्रांगण:मुखपृष्ठ/इतिहास | विस्तार में पढ़ें इतिहास प्रांगण (पोर्टल) |
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